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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...

भूमिका

भारत और चीन के युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह कथा एक उच्चवर्गीय पत्रकार युवक की कहानी है। तेजकृष्ण बुद्धि से समर्थ होते हुए भी अपनी सही जीवन संगिनी का चुनाव कर सकने में असमर्थ है और आशा-निराशा के भँवर में डोलते हुए अपना जीवन निर्वाह कर रहा है। लेखक ने तत्कालीन राजनीतिक समीकरणों की, उस समय के राजनेताओं की सोच तथा उस सोच की कमियों का बहुत अच्छा विवेचन प्रस्तुत किया है।

प्रथम परिच्छेद

1

‘‘माता जी! पिताजी क्या काम करते हैं?’’

एक सात-आठ वर्ष का बालक अपनी माँ से पूछ रहा था। माँ जानती तो थी कि उसका पति क्या काम करता है, परन्तु हिन्दुस्तान की अवस्था का विचार कर वह अपने पुत्र को बताना नहीं चाहती थी कि उसका पिता उस सरकारी मशीन का एक पुर्जा है, जो देश को विदेशी हितों पर निछावर कर रही है। अतः उसने कह दिया, ‘‘मैं नहीं जानती। यह तुम उनसे ही पूछना।’’

माँ की अनभिज्ञता पर लड़के ने बताया, ‘‘माँ! मैं जानता हूं। एक बड़ा सा मकान है। उसमें सैकड़ों लोग काम करते हैं। सब के मुखों पर पट्टी बंधी हुई रहती है। उनकी आंखें देखती तो हैं, परन्तु सब रंगदार चश्मा पहने हैं।

‘‘उस मकान के एक सजे हुए कमरे में एक बहुत सुन्दर स्वस्थ और सबल स्त्री एक कुर्सी पर बैठी है। कमरा मूल्यवान वस्तुओं से सजा हुआ है, परन्तु वह स्त्री, जो उस कमरे में मलिका की भांति विराजमान है, फटे-पुराने वस्त्रों में है। उसकी साड़ी पर पैबन्द लगे हैं। उस स्त्री के पीछे एक गोरा सैनिक हाथ में पिस्तौल लिए खड़ा है। स्त्री के हाथ-पाँवों में कड़ियाँ और बेड़ियाँ हैं। वह उस कुर्सी से लोहे की जंजीरों से बंधी हुई है।

‘‘पिताजी उस मकान में बैठे चिट्ठियाँ लिखते हैं। मैं वहां गया था, और मैंने पिताजी से पूछा था, ‘‘पिताजी! आप यहाँ क्या करते हैं?

‘‘उन्होंने बताया था, चिट्ठियाँ लिखता हूँ।

‘‘मैंने पूछा था, चिट्ठियाँ लिखने से क्या होता है?

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