उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
माँ दो-तीन मिनट तक टेलीफोन सुनती रही। सुनकर उसने चोंगा रखा और बच्चों से कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी चार बजे के हवाई जहाज से लंदन जा रहे हैं। उनका टेलीफोन था कि उनका सूटकेस तैयार कर दिया जाये। वह अभी सूटकेस लेने आ रहे हैं।
इसके उपरान्त दो घण्टे भर मकान में उथल-पुथल मची रही। तेज की माँ यशोदा ने ‘वार्ड रोब’ से कमीजें, पतलूनें, कोट, नेक्टाई, कालर, हजामत इत्यादि का सामान निकाल सूटकेस में ढंग से रखना आरम्भ कर दिया।
यशोदा सामान तैयार ही करके हटी थी कि बच्चों का पिता करोड़ी मल टैक्सी में आ पहुँचा और पूँछने लगा, ‘‘तो मेरा सूटकेस तैयार है?’’
‘‘अपने विचार से तो तैयार किया है। भूल भी हो सकती है।’’
‘‘देखो रानी! मैं अभी तीन महीने के लिए जा रहा हूं। वहाँ जाकर पत्र लिखूँगा।’’
करोड़ीमल ने दो सहस्त्र रुपए का चैक काटकर पत्नी को दिया और कहा, ‘‘बैंक में अपने खाते में जमा करा लेना। शेष वहाँ से भेजूँगा।’’
बस इतना ही समय था। पिता ने पुत्र और लड़की के सिर पर हाथ रख प्यार दिया और सीढ़ियों से नीचे उतर गया।
सन् १९४१ में हिन्दुस्तान के गैर-सरकारी समाचार-पत्रों में ब्रिटिश सरकार के जर्मनी से पराजित होने की चर्चा थी और उस चर्चा में देश की दुर्व्यवस्था तथा अंग्रेज़ का हिन्दुस्तानी नागरिकों से दुर्व्यवहार तेज की बाल-बुद्धि पर गम्भीर प्रभाव उत्पन्न कर रहा था और वह कुछ ऐसे ही स्वप्न देखने लगा था।
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