उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
कोठी के बाहर मोटर से उतरते ही उमाशंकर ने अपनी बहन प्रज्ञा के विषय में पूछा था। मार्ग भर वह विचार करता रहा था कि उसे एक अमरीकन ‘डौल’ दिखाकर उसका परिचय उसकी भाभी कहकर करायेगा। यही कारण था कि कोठी में पहुँचते ही उसे उपस्थित न देख उसने प्रश्न कर दिया था।
उमाशंकर के प्रश्न का कि प्रज्ञा की कोठी कहाँ है, उत्तर माँ ने दिया, ‘‘यहीं, इसी कालोनी में। उसके पति का मकान यहाँ से चौथाई किलोमीटर के अन्तर पर है।’’
इस समय पूर्ण परिवार मकान के ड्राइंग रूम में पहुँच गया। वहाँ एक कोने में टेलीफोन रखा देख उमाशंकर ने पूछ लिया, ‘‘उसके घर पर टेलीफोन है?’’
‘‘हाँ! किसलिये पूछ रहे हो?’’
‘‘मैं उसे बताना चाहता हूँ कि मैं उसकी भाभी को भी साथ लाया हूँ।’’
इस पर पिता रविशंकर हँस पड़ा। हँसकर वह बोला, ‘‘पहले हमें तो उसे दिखाओ?’’
‘‘तो आप उसको शकुन देंगे?’’
‘‘हाँ! वह मुँह दिखायेगी तो उसे शकुन देना ही होगा और उसपर न्यौछावर भी करूँगा।’’
‘‘तब तो उसे सूटकेस में से निकालना पड़ेगा। वह बेचारी अपने नये बने श्वसुर और उसके शकुन से वंचित क्यों रह जाये?’’ इतना कह वह सोफा से उठने लगा तो उसके छोटे भाई ने कह दिया, ‘‘दादा! चाबी मुझे दो। मैं यह कल्याण का कार्य कर देता हूँ। आपने मुझे सहबाला नहीं बनाया तो भी मैं प्रज्ञा बहन की भाँति बलपूर्वक सहबाला बन पुरस्कार पा जाऊँगा।’’
चारों हँसने लगे। उमाशंकर ने पैंट की जेब से सूटकेस की चाबी निकाली और अपने छोटे भाई को देते हुए कहा, ‘‘देखो! आदर से निकालना। कहीं हाथ पकड़ खेंचा तो उसकी कलाई इत्यादि में मोच भी आ सकती है।’’
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