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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘मेरी बनने वाली भाभीजान का।’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘तनिक मेरी तरफ देखो।’’ प्रज्ञा ने खड़ी हो नगीना को भी खड़ा कर कहा।

नगीना देखने लगी तो प्रज्ञा उसकी सूरत और डौल की सूरत को एक दूसरे से मिलाने लगी।

एकाएक उसने नगीना की बाँह पकड़ी और कहा ‘‘चलो भीतर! तुम्हारी पेशी होगी।’’

‘‘क्यों? मैंने क्या जुर्म किया है?’’

दोनों भीतर चल पड़ीं।

ड्राइंग-रूम में पहुँच प्रज्ञा ने नगीना को छोड़ पहले गुड़िया को चिमनी पर रखा और फिर बम्बई से आईं अपनी दोनों सासों से और पीछे अपने श्वसुर के चरण स्पर्श किए और फिर सोफा पर तीनों सासों के बीच घुसकर बैठ गई।

नगीना की माँ सालिहा ने प्रज्ञा के गले में बाँह डालते हुए कहा, ‘‘यह ठीक है। यहाँ बैठकर मिलने का लुफ्त ज्यादा आएगा।’’

‘‘अम्मी! एकदम दो-दो अम्मियों से मिलने का स्वाद जो है।’’

प्रज्ञा के एक ओर हमीदा थी। हमीदा के दूसरी ओर यासीन की माँ सरवर बैठी थी। उसने कह दिया, ‘‘यह लड़की माँ के प्यार की भूखी यहाँ आई मालूम होती है। हर रोज सुबह कदम-बोसी के बाद गले मिलने के लिए इसरार करती है।’’

‘‘यह तुम्हारे लड़के में खामी है। वह इससे काफी प्यार नहीं करता मालूम होता।’’

प्रज्ञा ने इसका उत्तर नहीं दिया। अब्दुल हमीद बता रहा था, ‘‘आज सुबह सालिहा कहने लगी कि उसे ख्वाब में मुहम्मद यासीन बुला रहा महसूस हुआ है। मैं उसे मिलने जा रही हूँ।’’

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