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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


मुहम्मद यासीन ने उमाशंकर को देखकर कह दिया, ‘‘भाई साहब! आदाब अर्ज है। आपके दीदार आज पहली बार ही हुए हैं। आपकी बहन से पता चला है कि आप छः वर्ष से मुल्क से बाहर थे। मैं तो इस कालोनी में दो वर्ष से ही आया हूँ।’’

‘‘आप पीछे कहाँ के रहने वाले हैं?’’

‘‘मेरे वालिद शरीफ बम्बई फोर्ट एरिया में सौदागरी की दुकान रखते हैं। मैंने दो साल हुए बी.ए. फाइनल किया तो वालिद शरीफ ने उसी वक्त यह फरमाया कि मुझे अपनी अम्मी को लेकर दिल्ली चले जाना चाहिए।

‘‘मेरी अम्मी उनकी पहली बीवी हैं। वालिद साहब की दो और बीवियाँ हैं। उनसे मेरे सात भाई-बहन हैं। अपनी अम्मी की मैं अकेली ही औलाद हूँ। शायद यही वजह है कि वालिद शरीफ ने मुझे घर से अलैहदा कर दिया।

‘‘हमारे लिए उन्होंने इस कालोनी में हमारा मौजूदा मकान और मेरे लिए भारी पगड़ी देकर कनाट प्लेस, में एक दुकान ले दी और मैं यहाँ चला आया।’’

‘‘आपका शुभनाम?’’

‘वालिद और अम्मी ने मुहम्मद यासीन रखा हुआ है और आपकी बहन ने मेरा एक दूसरा नाम रखा है।’’

उमाशंकर यह सुन कि उसके पिता की तीन पत्नियाँ हैं, समझ गया था कि उसका बहनोई मुसलमान है और अब नाम सुन उसको अपने अनुमान का समर्थन मिल गया। साथ ही, पिताजी के विचारों को जानते हुए, वह दोनों परिवारों में वैमनस्य का कारण भी समझ गया। इस पर भी उसने इस विषय पर अपनी सम्मति प्रकट नहीं की। उसने पूछ लिया, ‘‘तो प्रज्ञा ने आपका क्या नाम रखा है?’’

‘‘उसने मेरा नाम ज्ञानस्वरूप रखा है ।’’

‘‘और आपने यह नाम स्वीकार कर लिया है?’’

‘‘इन्कार कैसे कर सकता था? प्रज्ञाजी बोलीं, मैं आपको ज्ञानस्वरूप मानती हूँ। आप अपने को जो चाहे, मानिए, मेरा उससे कोई सम्बन्ध नहीं।’’

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