उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘माँ ने यह बात समझी थी क्योंकि मैंने अपने अब्बाजान की लड़की को अपने पिता के लडके से शादी के लिए कहा था। मुझे दोनों के मजहब में फर्क दिखाई नहीं दिया था। मुझे दोनों में मानवता दिखाई दी थी।’’
‘‘पिताजी को नगीना एक मुसमलान की लड़की समझ आई है। मुझे वह एक इंसान की लड़की समझ आई थी।’’
‘‘यह ऐसा ही है, जैसे आप दुकान पर जाने वाला सूट पहने हों अथला रात सोने की पोशाक पहने हों। तब भी मुझे आप एक से ही दिखाई देते हैं। पोशाक से आप में फरक दिखाई नहीं देता।’’
‘‘इसलिए जब मैंने नगीना के मन, बुद्धि और शरीर का विचार किया तो भाई के लिए उसकी लालसा करने लगी थी।’’
बात इतनी युक्तियुक्त थी कि इसका उत्तर ज्ञानस्वरूप को समझ नहीं आया। वह इस युक्ति को ठीक समझ चुपकर गया और बोला, ‘‘अब सोना नहीं चाहिए क्या?’’
‘‘ओह!’’ प्रज्ञा के मुख से विस्मय से निकल गया। उसने कलाई पर बंधी घड़ी में वक्त देखा और उठ खड़ी हुई।
अगले दिन अल्पाहार के समय सरवर खाने की मेज पर प्रज्ञा और ज्ञानस्वरूप की प्रतीक्षा कर रही थी। नगीना उसके पास ही बैठी हुई थी।
जब पति-पत्नी आए तो उनके आते ही सरवर ने कहा, ‘‘यह लड़की क्या कह रही है?’’
प्रज्ञा समझ गई की नगीना ने नाम की बात अम्मी को बता दी है और वह डाँट बताने वाली है। इस कारण उसने नज़र उठा माँ की ओर देखा। माँ मुस्कराती हुई दिखाई दी। इसमें कुछ आश्वस्त हो उसने पूछा, ‘‘अम्मीजान! क्या कहती है यह?’’
‘‘यह कहती है कि तुमने इसका नाम कमला रख दिया है।’’
‘‘तो आपको यह नाम पसन्द नहीं है?’’
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