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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


वह इस द्विविधा में पड़ा हुआ अपने झोंपड़े को लौट आया। वह बड़ौज से विचार करना चाहता था। अपने झोंपड़े में पहुँच उसे पता चला कि उसका लड़का अभी तक लौटा नहीं। वह उसकी प्रतीक्षा में बैठा रहा।

मध्याह्नोतर बिन्दू का पिता गदरे आया और सोना से पूछने लगा, ‘‘यहाँ बिन्दू आई थी, कहाँ गई है?’’

‘‘यहाँ से तो वह थोड़ी देर में ही चली गई थी।’’

‘‘लेकिन वह घर तो गई नहीं, किधर गई थी?’’

‘‘बड़ौज के साथ नदी की ओर गई थी।’’

गदरे को भी वही सन्देह हो रहा था जो चौधरी को हुआ था, परन्तु न तो चौधरी ने मन की बात अपनी पत्नी को बताई थी, न ही उसने बिन्दू के पिता को कुछ बताया। गदरे भी इस बात को मुख से कहना नहीं चाहता था।

गदरे लौट गया। अब धनिक ने कहा, ‘‘तो बड़ौज भी तब का नहीं लौटा?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘वह कबीला छोड़कर भाग गया है।’’

सोना ने मुख पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत कर दिया। वह भी यही विचार कर रही थी। चौधरी ने कहा, ‘‘रुपये का प्रबन्ध नहीं हो रहा। मैं भी भाग जाने में ही कल्याण मानता हूँ।’’

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