उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
निमंत्रण-पत्र पढ़ने वाला प्रो० सुदर्शनलाल स्वयं था। निमन्त्रण-पत्र की छपाई तथा कार्ड की श्रेष्ठता इत्यादि देखने के लिए उसने लिफाफे में से उसे निकालकर पढ़ा था। पढ़ते-पढ़ते अपनी होने वाली पत्नी सुमति का चन्द्रमुख उसके ध्यान में आ गया। सुमति अति सुन्दर थी। सुदर्शनलाल ने उसको सगाई से एक दिन पूर्व उसे देखा था और देखकर मंत्रमुग्ध व स्तब्ध रह गया था।
यों तो उसकी छोटी बहन निष्ठा ने उसको पहले से ही सूचित कर रखा था कि सुमति सोलह वर्ष की अति सुन्दर लड़की है। इस ‘अति सुन्दर’ शब्द के प्रयोग-मात्र से सन्तुष्ट न हो, उसने निष्ठा से पूछा था–‘‘कैसी सुन्दर है?’’ तो निष्ठा ने बताया था-
अनाविद्धं रत्नं मधुनवमनास्वादितरसम्
अखण्डं पुण्यानं फलमिव च तद्रूपमनघं
न जाने भोक्तारं किमिह समुप्स्थास्यति विधिः।।’
यह सुन सुदर्शनलाल ने हँसते हुए कहा था–‘‘फिर छाँटने लगी हो संस्कृत! यदि तुम सीधी इन्सानों की भाषा में बात नहीं करोगी तो पिताजी से कहकर तुम्हारा संस्कृत पढ़ना बंद करा दूँगा।’’
निष्ठा ने बी० ए० में संस्कृत ले रखी थी। वह संस्कृत-साहित्य में बहुत रुचि लेती थी। संगीत और चित्रकला भी उसके प्रिय विषय थे। अतः बात करते-करते उसके मुख से साहित्य प्रस्फुटित होने लगता था।
निष्ठा ने जब भैया को, अपनी होने वाली पत्नी के वर्णन में ‘अति सुन्दर’ शब्द से असन्तुष्ट देखा तो कालिदास का वह श्लोक सुना दिया था। इससे तो प्रोफेसर भैया का असन्तोष और भी बढ़ गया था क्योंकि वह संस्कृत का एक शब्द भी नहीं जानता था। अतः निष्ठा ने हँसते हुए पूछ लिया–‘‘भैया! समझे नहीं!’’
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