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उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मैंने विचार कर लिया है। यदि तुम रहोगी तो जल्दी ही माताजी यहाँ तुम्हारे पास आकर रहने लगेंगी। जब तुम्हारी माँजी जानकी से अवकाश पा जाएँगी, तब वे भी आ-जा सकती हैं और प्रसव यहीं होगा। अगर किसी प्रकार की कठिनाई समझ में आई तो सामने हस्पताल है ही।’’
‘‘अपनी माताजी को क्यों कष्ट देंगे?’’
‘‘मैं उनको कुछ नहीं कह रहा। उनके यहाँ आने की बात तो उनकी अपनी विचार की हुई है।’’
माला भोजन समाप्त कर भीतर चली गई। भगवानदास को रुपए की बात विचित्र प्रतीत हुई थी। चार महीने से वह पिताजी को रुपए दे रहा था और करीमा का कहना कि उतनी ही उसके पिताजी माला को दे जाते हैं। उसको इसमें वैचित्र्य यह मालूम हुआ कि वे कब यहाँ आते थे और कब दे जाते थे। साथ ही न तो माला ने इसके विषय में कभी बताया था और न ही पिताजी ने इसका जिक्र किया था।
भगवानदास की समझ में करीमा तथा नूरुद्दीन की बात नहीं आई। इसी से उसने सन्देह प्रकट कर दिया था। अब वह पिताजी से इस विषय में पूछने का विचार रखता था।
अगल दिन रामदेई स्वयं माला से मिलने चली आई। स्वास्थ्य-समाचार पूछने के पश्चात् उसके दिन चढ़ने की बातहोने लगी। माँ ने पूछ–‘‘अन्तिम बार रजस्वला कब हुई थीं?’’
‘‘ठीक याद नहीं। इस कोठी में आने के बाद एक बार हुई हूँ।’’
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