उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘माताजी! यह इन्तजाम तो ठीक नहीं। देखिए मैं अपने घर में क्या करती हूँ मेरा देवर रमज़ान भी स्कूल पढ़ने जाता है। उसको भी घर से साढ़े छः बजे जाना होता है। मैं रात को तन्दूर में छः सात नान मँगवा लेती हूँ। प्रातः दो मिनट चूल्हा जलाने में लगते हैं। रमज़ान खुद जला लेता है और नान में घी-शक्कर लगा, गरम करके खा जाता है। वह नया मकान बनने से पहले बाजार में लगे नल में नहा लिया करता था। अब घर में नल लगा है। वह वहाँ नहा लेता है। मुझको उसके लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। रामज़ान के बाद मैं नहाती हूँ। जब मैं पाक-साफ़ को निकलती हूँ, रामज़ान स्कूल चला गया होता है। मैं नहाकर रात का पड़ा सलूना गरम कर देती हूँ और उसके साथ और कभी घी-शक्कर से नान खाकर बाप-बेटा अपने काम पर चले जाते हैं। मेरे श्वसुर तो आठ दिन में एक दिन नहाते हैं, मगर मैंने उनके लड़के को नहाने की आदत डाल दी है और अब वे रोज नहाते हैं।
‘‘मेरी सास को अभी भी देरी से उठने की आदत है। वे बिस्तर पर ही चाय पीती हैं। जब बाप-बेटा काम पर चले जाते हैं और मैं सुबह का नाश्ता कर लेती हूँ, तो उनके पीने के लिए चाय ले जाती हूँ। वे बिस्तर में ही चाय पीती हैं, और फिर आराम से उठती हैं। वे भी मेरे श्वसुर की तरह हफ्ते में एक दिन ही नहाती हैं। तब वे भी नान और रात के सलूने से या घी-शक्कर से नाश्ता कर लेती हैं। वे खा-पीकर फिर सो जाती हैं और मैं उनके दफ्तर का हिसाब-किताब ठीक कर देती हूँ। दोपहर के एक बजे हम साग-भाजी से रोटी खाती हैं। यह रोटी और साग-भाजी नौकरानी बनाती है। मैं खाने के बाद सोती हूँ और तीसरे पहर पढ़ती हूँ। उर्दू का अखबार पढ़ती हूँ या कोई अंग्रेजी की किताब पढ़ लेती हूँ। साढ़े पाँच बजे बाप-बेटा काम से लौटते हैं। उनके आने पर नौकरानी चाय बनाती है और बाजार से मिठाई, बिस्कुट वगैरा मँगवाकर चाय पीते हैं। बाप तो आराम करता है और बेटा दिन-भर का हिसाब मुझको बता देता है जो मुझको अगले दिन रजिस्टरों में लिखना होता है।
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