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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘अम्मी! मैं इस घर में अम्मी ही हूँ।’’

‘‘और घर में कौन-कौन है?’’

‘‘एक दर्जन से ज्यादा नौकर-चाकर और रक्षक हैं। दो नौकरानियाँ भी हैं।’’

‘‘और मैं अपने घर जा सकती हूँ क्या?’’

‘‘वह कहाँ है?’’

‘‘भटियारिन की सराय में।’’

अम्मी हँस पड़ी। हँसते हुए बोली, ‘‘तुम अब ससुराल में आ गई हो। ससुराल से मायके में कोई जाना नहीं चाहता।’’

‘‘मगर भैया मोहन और भगवती की पत्नियाँ तो अपने मायके जाती हैं।’’

‘‘वे हिंदू हैं। मुसलमान की बीवी अपने माँ-बाप के घर नहीं जा सकती।’’

‘‘सच?’’

‘‘हाँ? और खास तौर पर शहंशाह की बीवी।’’

‘‘मगर मेरी उनसे शादी नहीं हुई।’’

‘‘हो गई है। रात शादी ही तो हुई है।’’

दिन पर दिन व्यतीत होने लगे। न तो उसके घर से राधा, मोहन इत्यादि का कोई समाचार आया और न शहंशाह फिर उसके पास आया।

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