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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


तीसरा विकल्प था, वहाँ से भाग जाए और भागती हुई पकड़ी जाए तो सामने के पेड़ से फाँसी लटका दी जाए। वह मन में विचार करती थी कि यह राज्य है क्या? परमात्मा ने ऐसे वयक्ति को राजा क्यों बनाया है? वह अपनी बाल-बुद्धि से इस सबका रहस्य समझ नहीं सकी।

इस पर अपने पति को उसे पुनः अपने घर में स्थान देने की बात उसके मन में गुदगुदी उत्पन्न करने लगी थी। दिन-भर और रात-भर वह अपने विचारों में खोई-खोई अनुभव करती रही।

तीसरे प्रहर अम्मी आई और उसे चिंतित देख पूछने लगी, ‘‘सुंदरी! क्या बात है? आज बहुत उदास मालूम होती हो।’’

‘‘हाँ, अम्मी! मैं सोने की हथकड़ियों और बेड़ियों से खूँटे से बाँधी महसूस करती हूँ।’’

‘‘यह तो बीबी, सब औरतों की किस्मत में लिखा है। देखो, आदमी कई-कई बीवियाँ रखता है और औरत यदि खाविंद के अलावा किसी दूसरे की तरफ आँख भी उठाकर देख ले तो उसकी आँखें निकाल दी जाती हैं।’’

‘‘सच! अम्मी! तुमने किसी की आँखें निकाली जाती देखी हैं?’’

‘‘आँखें निकाली जाती तो नहीं, मगर उस पेड़ से, जो प्रांगण के दक्षिण में है, फाँसी चढ़ाई जाती तो कितनों को ही देखा है।’’

‘‘क्यों? किस कसूर पर?’’

‘‘नगर चैन के किसी सिपाही से मोहब्बत करते पकड़ी जाने पर।’’

‘‘और अगर जो मुझे यहाँ लाया है, वह सालों-साल तक दर्शन न दे तो क्या होगा?’’

‘‘वह शहंशाह है। उसको बहुत काम रहते हैं। उसे कोई नहीं कह सकता कि वह इधर जरूर आए।’’

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