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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘सुंदरी’ शब्द से लड़की का ध्यान भट्टी की ओर से हटकर शहंशाह पर गया। उसकी पोशाक और रूप-राशि देख लड़की समझ गई कि कोई रईस है। इसी समय उसने सड़क पर आधे दर्जन सिपाहियों को भी खड़े देखा। इस कारण वह बोली, ‘‘हुज़ूर! जरा ठहरिए। इस पुर को निकाल लूँ तो देती हूँ।’’

‘‘किसकी बेटी हो?’’

‘‘इस सराय के मालिक की।’’

‘‘वह कहाँ है?’’

‘‘भीतर किसी काम से गया है।’’

‘‘बहुत सख्त काम वह तुमसे ले रहा है।’’ अकबर ने लड़की से सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा। लड़की रेत और चने छननी में लेकर भुने चने रेत से पृथक कर रही थी। काम में व्यस्त और यात्री की ओर न देखते हुए उसने कह दिया, ‘‘हुज़ूर! पेट की खातिर सब मेहनत करते हैं। आप भी तो इस धूप में यात्रा कर रहे हैं।’’

‘‘तो मैं भी पेट के लिए कर रहा हूँ?’’ अकबर ने लड़की से बातों में दिल बहलाने के लिए कह दिया।

लड़की का सतर्क उत्तर था, ‘‘शरीर, मन और बुद्धि की तसल्ली के लिए ही तो सब संसार भाग-दौड़ कर रहा है।’’

‘‘ओह!’’ अकबर को लड़की के उत्तर में एक श्रेष्ठ मंतक (मीमांसा) युक्त कथन ही लगा। वह आवाक् लड़की के मुख को देखता रह गया।

लड़की ने तराजू उठाया और एक पत्थर का बाट डाल चने तोल तराजू का पलड़ा शहंशाह की ओर कर दिया और कहा, ‘‘हुज़ूर! किसी रूमाल में डलवा लें।’’

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