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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘और अगर मैं न दूँ तो?’’

‘‘तो आप बेईमान भी हैं? आप तो रईस मालूम होते हैं।’’

‘‘तो रईस बेईमान नहीं होते?’’

‘‘उनको बेईमानी करने की जरूरत नहीं होती। परमात्मा ने उन्हें इतना कुछ दिया होता है कि उन्हें दो पैसे के लिए मुकर जाने की जरूरत नहीं होती।’’

अकबर विचार कर रहा था कि वह तो नित्य अपने राज्य की वृद्धि के लिए झूठ, फरेब और बल-प्रयोग कर रहा है। तो क्या वह कंगला है जो यह करता है?

उसे लड़की की दलील गलत समझ आई। उसकी तीन बेगमें तो राजमहल में ही थीं और उनके अतिरिक्त भी कई स्त्रियों से संबंध था। उस पर भी वह इस लड़की के सौंदर्य को, जो मैले, भट्टी के धुएँ से काले हुए कपड़ों में छुपा हुआ था, देख मन में इसको प्राप्त करने की लालसा करने लगा था।

वह यह समझा कि यह जीवन-मीमांसा निर्धनों को शांत और अपनी निर्धनता से संतुष्ट रखने के लिए किसी ने बनाई है। वस्तुस्थिति यह है कि धनवान अधिक लोभी होते हैं। निर्धन धनवानों से अधिक संतोषी और ईमानदार होते हैं।

‘‘मैं रईस तो हूँ, मगर दो पैसे के लिए बेईमान भी हो सकता हूँ।’’

‘‘तो परमात्मा तुमसे अगले जन्म में नाक में नकेल डालकर दिलवा देगा।’’

‘‘नहीं। मैं तो इसी जन्म में दाम अदा करना चाहता हूँ।’’

‘‘तो अपने किसी साथी से दो पैसे माँग लो।’’ इतना कहकर लड़की ने सड़क पर खड़े सिपाहियों की ओर देखा।

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