उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘क्यों?’’
‘‘कुछ नहीं बेटा ! वह देखो, लालसा-भरी दृष्टि से, मुख से जीभ निकाले इधर ही देख रहा है। लो, इसे डाल दो।’’
बिहारीलाल ने हाथ से पानी लिया। माँ ने भी हाथ का चुल्लू बना पी लिया और स्वयं उठ रोटी कुत्ते को डालने चल पड़ी। फकीरचन्द मुख देखते रह गया।
माँ ने कुत्ते के आगे रोटी फेंकी और वह उसको उठाकर एक कोने में ले गया और खाने लगा। माँ आकर पुनः बिस्तर पर बैठ गई। फकीरचन्द अभी भी लोटा लिये वहीं खड़ा था। उसने कुछ भर्त्सना के भाव में कहा, ‘‘माँ ! इस प्रकार कब तक चलेगा। खाओगी नहीं तो बीमार पड़ जाओगी और फिर हमारा मन काम में कैसे लगेगा?’’
‘‘मैं बीमार नहीं पड़ूँगी बेटा।’’
‘‘पर तुमने रोटी क्यों नहीं खाई !’’
माँ ने एक निःश्वास छोड़कर कहा, ‘‘तुम समझ नहीं सकोगे बेटा ! आज से सत्रह वर्ष पूर्व की बात स्मरण हो आई है। तब तुम्हारे पिता जी मुझको एमिनाबाद से विवाह कर लाये थे और मुझको इसी स्थान पर बैठाकर ताँगा-टमटम का प्रबन्ध करने चले गये थे।
‘‘मैं नव-वधुओं के से आभूषण और वस्त्र पहने हुई थी। तुम्हारे बाबा और तुम्हारे पिता के बड़े भाई तथा मेरी जेठानी और सास यहीं मेरे पास दरी बिछाकर बैठे थे। सास कह रही थीं कि बाजे का प्रबन्ध होना चाहिए। जेठ ने कहा, ‘फजूल है। कौन बड़ा दहेज लेकर आई है, जो बाजे-गाजे से डोली ले जाएँ।’
‘‘आज सत्रह वर्ष के पश्चात् इस नगर से ऐसे ही विदा हो रही हूँ। नहीं मालूम फिर कभी, यहाँ आने का अवसर मिलेगा अथवा नहीं।’’
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