उपन्यास >> धरती और धन धरती और धनगुरुदत्त
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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती। इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।
‘‘समझ गया।’’ धनराज ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा। जब वह चला गया तो चपरासी, जिसको मालिक चार आना प्रति गाड़ी दे रखे थे, खिड़की पर आया और कहने लगा, ‘‘बाबू जी ! तीन गाड़ियों की रसीद काट दो। माल साढे छः मन, चुंगी एक रुपया।’’
इतना कह चपरासी ने खिड़की में से छः रुपये आगे कर दिये। धनराज ने ये रुपये पकड़े तो उसका हाथ काँप उठा। वह समझा कि यह पाप कर्म है। इस समय उसको बच्चे के लिए बोतल ले जाने का स्मरण हो आया। उसके मन में द्वन्द्व चल पड़ा। एक ओर धर्म संकट था, वह सरकार की ओर से चुंगी एकत्रित करने के लिए नियुक्त था, चुंगी लगभग पन्द्रह रुपये बनती थी। दूसरी ओर उसको अपने बच्चे का बिलख-बिलखकर रोना दिखाई देता था। उसके हाथ में छः रुपये चमचमाते हुए रखे थे। इनमें से, तीन उसकी जेब में जाने वाले थे और उन तीन रुपयों से न केवल दूध की बोतल खरीदी जा सकती है, प्रत्युत उसकी पत्नी के लिए धोती भी ली जा सकती है। साथ ही वह विचार कर रहा था कि इस प्रकार एक नियत आय बन सकती है, जिससे कुछ ही महीनों में वह पैसे वाला हो सकता है और किसी खुली हवादार जगह पर मकान लेकर जीवन को सुखमय कर सकता है।
उसने रुपये वाले हाथ की मुट्ठी बन्द कर ली। इस समय उसके हृदय-स्थल पर एक टीस उठी। उसने मुट्ठी खोल दी। उसके मुख की मुद्रा दृढ़ बन गई और उसने रुपयों को काउण्टर पर रखकर चपरासी को कहा, ‘‘गाड़ियों को लाकर तुलाओ।’’
चपरासी ने मुस्कराते हुए धनराज की ओर देखकर कहा, ‘‘बाबू जी ! यह...।’’ उसने रुपयों की ओर संकेत किया।
धनराज के मन में फिर विचार आया, ‘कौन देखता है !’ परन्तु अगले ही क्षण उसने कुर्सी से उठते हुए कहा, ‘‘गाड़ी को काँटे पर लाओ। मैं बाहर आ रहा हूँ।’’
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