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उपन्यास >> धरती और धन

धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7640

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बिना परिश्रम धरती स्वयमेव धन उत्पन्न नहीं करती।  इसी प्रकार बिना धरती (साधन) के परिश्रम मात्र धन उत्पन्न नहीं करता।


‘‘किसान तो प्रायः निर्धन होते है। तो क्या मैं फिर जीवन-भर निर्धन ही बनी रहूँगी?’’

‘‘नहीं माँ। यदि पर्याप्त भूमि मिल गई तो निस्संदेह इस मशीन चलाने की अपेक्षा तो यह अच्छा ही रहेगा।’’

‘‘कितनी भूमि मिल जाएगी तुमको?’’

‘‘यह तो जाकर पता चलेगा।’’

‘‘मुझको कुछ विचित्र-सा लग रहा है। इस नगर में पैदा हुए और पले हैं। देहात में महारा जीवन सुखी रह सकेगा क्या? यही समझ में नहीं आता।’’

माँ की यह आशंका सुन, फकीरचन्द चुप रहा। फिर कुछ विचार कर उसने कहा, ‘‘माँ ! तुम अभी यहीं रहना। मैं अकेला जाऊँगा। जब वहाँ रहने योग्य स्थान और खाने-पीने के योग्य सामान एकत्रित कर लूँगा, तो चली चलना। मेरा मन कहता है कि यह अवसर भगवान् ने दिया है और हम इसको खोना नहीं चाहिए।’’

माँ ने गम्भीर होकर कहा, ‘‘अच्छी बात है। मैं भी भगवान् से प्रेरणा लूँगी। जैसे वह कहेगा, वैसा करूँगी।’’

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