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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


राजकरणी कस्तूरी को लेकर आई थी, जिससे पुत्र अपने पिता की सहायता के लिए मामी को धन्यवाद कर सके। वे अभी बातें ही कर रहे थे कि चरणदास आ पहुँचा। उसे आया देख सुमित्रा और केशवचन्द्र भी वहाँ आ गए। मोहिनी तो पति को आया देख विस्मय करती रह गई। उसका विचार था कि वह कहीं से यह पता पा गया है कि उसने अपनी पूर्ण सम्पत्ति गजराज को दे दी है। अतः वह उसे रोकने के लिए आया है।

चरणदास ने बैठते ही कहा, ‘‘मोहिनी, मैं तुमसे क्षमा माँगने के लिए आया हूँ।’’

‘‘क्यों, क्या हुआ है? मैंने आप पर कोई आरोप लगाया नहीं, जिसके लिए क्षमा की आवश्यकता हो।’’

‘‘मैंने भूल की है। उस भूल से तुमको भी हानि पहुँची थी इसी कारण मैं क्षमा माँगने आया हूँ। मैं उस बेईमान औरत को शरीफ समझता था। मैंने अपना सब-कुछ उसके हवाले कर दिया, जिससे किसी समय मैं मुसीबत में पड़ जाऊँ तो वह मेरी सहायता करे।

‘‘दो वर्ष से मेरे पास एक पैसा भी नहीं था और मैं उसके यहाँ इस प्रकार रहता था, जैसे वह मेरा अपना ही घर हो। पिछले कुछ मास से वह कहने लगी थी कि मुझे कुछ काम करना चाहिए। कुछ दिनों से वह और भी कठोर हो गई थी। आज एकाएक कुछ ट्रक नीचे आये और धड़ाधड़ उनमें सामान भर जाने लगा। मैंने उनसे पूछा, ‘यह क्या हो रहा है?’ तो वह कहने लगी, ‘यह सामान मैंने बेच डाला है।’

‘‘मैंने पूछा, ‘क्यों?’ तो कहने लगी, ‘मैं रायबरेली जा रही हूँ।’

‘‘मैंने विस्मय से पूछ लिया, ‘और मैं?’ वह कहने लगी, ‘खुदा ने दो हाथ और दो पाँव दिये हैं। कमाओं और खाओ।’’

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