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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


चरणदास ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘आप क्या समझते हैं कि मेरे-जैसा निर्धन भी कभी लाखों का स्वामी बन सकता है?’’

‘‘तुम्हारी बहिन के विवाह के एकाध वर्ष बाद की बात है, मेरे पिताजी ने तुम्हारे पिताजी से कहा था कि तुमको उनकी दुकान पर ‘शागिर्द’ बनवाकर बैठा दिया जाय। उन दिनों तुम चौथी कक्षा में पढ़ते थे। तुम्हारे पिताजी ने पूछा, ‘‘इससे क्या होगा?’’

‘‘तुम धनी हो जाओगे।’ मेरे पिताजी का कहना था।

‘धन भी कोई दही है, जो जामन लगाने से जमने लगता है?’

‘हाँ।’ पिताजी का कहना था। मैं दोनों के सामने बैठा था और उनकी बातें सुन रहा था। पिताजी ने कहा, ‘देखो सोमनाथ, तुम्हारी लड़की ने हमारे घर में आकर हम सबको कृतार्थ कर दिया है। मैं इसके लिए कृतज्ञ हूँ। इसका विनिमय मैं यहीं समझता हूँ कि अपने धन की जामन लगाकर, ‘‘तुम्हारे परिवार को भी धनवान बना दूँ।’’

‘तो क्या आप उसको रुपया देकर कोई व्यापार करायेंगे?’

‘मैं रुपया क्यों दूँगा? वह तो चरणदास अपने परिश्रम से ही उत्पन्न कर लेगा।’

‘‘तुम्हारे पिताजी ने कह दिया, ‘नहीं गिरधारीलालजी! लड़का अभी पढ़ेगा। बिना पढ़े अक्ल नहीं आती। वह अभी काम नहीं करेगा।’’

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