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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘फिर...फिर...? वह मैं अभी कैसे बता सकता हूँ?’’

‘‘देखो कस्तूरी, तुम झूठ बोलना सीख गए हो। झूठ वह बोलता है, जिसे सत्य बोलने में हानि प्रतीत हो। हानि उस सत्य में होती है, जो कानून अथवा नैतिकता के विपरीत हो। बताओ, तुमने ऐसा कौन-सा कार्य किया है जिसको छिपाने की आवश्यकता अनुभव कर रहे हो?’’

‘‘कुछ नहीं डैडी! कुछ भी तो छिपाने की बात नहीं है।’’

अभी कस्तूरी से बात हो रही थी कि चरणदास आ पहुँचा। गजराज ने पूछा, ‘‘सुनाओ चरणदास? क्या पाप किया जा रहा है जिसको छिपाने के लिए तुम्हें अपनी पत्नी के सम्मुख भी झूठ बोलना पड़ रहा है?’’

‘‘पाप-पुण्य की बात तो मैं जानता नहीं। फिर भी कुछ तो है। आप कस्तूरी से जो-कुछ कहना चाहते हैं, कह लें, फिर मैं पृथक् में आपसे बात करूँगा।’’

‘‘इससे तो बात हो चुकी है। केवल यह कहना ही शेष है कि आज से वह तुम्हारे घर नहीं जाएगा।’’

‘‘संजीव उदास हो जायगा।’’

‘‘संजीव को यहाँ भेज दो। यमुना और सुभद्रा जा रही हैं, फिर यह कोठी भी तो खाली-खाली हो जायगी।’’

‘‘संजीव को यहाँ भेजने में चरणदास को कोई आपत्ति नहीं थी। मोहिनी की बात थी। वह मानेगी अथवा नहीं, यह वह नहीं कह सकता था। इस कारण वह मौन रहा।

चरणदास को चुप देख गजराज ने अपने लड़के से कहा, ‘‘अब तुम जाओ। आज से तुम्हारा पृथ्वीराज रोड पर जाना वर्जित है, इसका ध्यान रखना।’’

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