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1857 का संग्राम

वि. स. वालिंबे

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8316

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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन

सर ह्यूरोज अपनी सेना लेकर झांसी के प्रवेशद्वार पर आ धमका। अब लड़ाई बाकायदा शुरू हो गयी थी। ह्यूरोज की तोपें दस दिनों तक झांसी शहर और किले पर आग बरसाती रहीं। तोप के बार-बार के हमले से आखिर दसवें दिन किलें की दीवार में छेद हो गया। ह्यूरोज ने सोचा कि इसी सुराख से सिपाहियों को किले के अंदर भेजा जाये। लेकिन किले के पहरेदारों ने रातोंरात मरम्मत कर सुराख बंद कर दिया। अंग्रेजों ने फिर से एक बार उसी जगह से तोप चलायीं। इस बार तोप की मार से दीवार का कुछ हिस्सा ढह गया। ऐसी स्थिति में भी किले की दीवारों के ऊपर दौड़ते हुए रानी ने अपने सिपाहियों का धीरज बढ़ाया। रानी का रौद्र रूप देखकर सब चकित हुए। लोगों को रानी की जगह साक्षात् दुर्गा मां नजर आ रही थी। उन्हें अपने सिपाहियों की चिंता थी, सिपाहियों को रानी की।

रानी ने जान लिया था कि वह अंग्रेजों से किला बचा नहीं सकतीं। इसके बावजूद रानी ने हार कबूल नहीं की। अंग्रेज सिपाही अब किसी भी समय किले में पहुंच सकते थे। रानी ने फैसला किया कि वह अपने आपको अंग्रेजों के हवाले नहीं करेंगी। उन्हें बंदी बनकर और बेआबरू होकर जीना पसंद नहीं था। रानी ने सोचा, इससे तो मौत भली। वह सोच ही रही थी कि किले से कहां से छलांग लगाऊं, तभी किले के नजदीक एक टीले पर धुंआ नजर आने लगा। वह तात्या टोपे का इशारा था। रानी के सिपाही खुश हुए।

श्रीमंत नाना साहब के रसोई में तात्या टोपे रसोइया (महाराज) था। लेकिन इस जिंदादिल आदमी को कोई लालच नहीं था। ईमानदार तात्या टोपे श्रीमंत नाना साहब को फिर एक बार राजसिंहसन पर विराजमान होते हुए देखना चाहता था। इसी मुहिम पर तात्या ने अपने प्राण निछावर कर दिये थे। नाना साहब के निर्जनवास स्वीकारने के बाद तात्या टोपे खाली नहीं बैठा। इसी बहादुर सिपाही ने लड़ाई में जान फूंकी। उसने अंग्रेजों के खिलाफ बीस हजार सिपाहियों की फौज खड़ी कर दी। अंग्रेजों के ठिकानों पर हमलों की संख्या बढ़ गयी। उन्हें खबर मिली कि झांसी की रानी मुसीबत में फंस गयी हैं। वह तुंरत उनकी रक्षा करने को दौड़ पड़ा।

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