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1857 का संग्राम

वि. स. वालिंबे

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8316

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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन

इस आदेश पर सभी सिपाही अपनी जगह चुपचाप खड़े रहे। अपने आदेश की अवहेलना देखकर व्हीलर ने मैदान छोड़ दिया। ब्रिगेडियर चार्ल्स ग्रांट ने भी यही आदेश दिया। लेकिन उसका आदेश भी नजरअंदाज कर दिया गया। हिअर्सी ने अब दूसरा रास्ता अपनाया। उसने पास खड़े जमादार ईश्वरी पांडे पर पिस्तौल का निशाना लगाया और हुक्म दिया, ‘‘मैं क्विक मार्च करूंगा, तब तुम उस सिपाही पर हमला करोगे। उसे पकड़कर मेरे सामने खड़ा करना होगा। अगर तुम यह काम नहीं करोगे, तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।’’

ईश्वरी पांडे असहाय था। वह मंगल पांडे की ओर बढ़ा। एक घंटे की हाथापाई और छीनाझपटी में मंगल पांडे थक गया। लड़ने की सारी शक्ति चुक रही थी। आखिर मंगल पांडे ने स्वयं पर गोली चला दी। वह शत्रु के हाथों पड़ना नहीं चाहता था। गोली उसके गर्दन में घुस गयी थी। वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। उसे तुरंत फौजी अस्पताल में दाखिल किया गया। सप्ताह भर बाद मंगल पांडे पर  मुकदमा दायर किया गया। जज ने उससे बार-बार एक ही सवाल पूछा—

‘‘किसके इशारे पर तुमने यह काम किया है? इस साजिश के पीछे कितने और लोग हैं?’’

‘‘मैंने अकेले यह सब कुछ किया है।’’

‘‘क्या तुम्हें अपनी सफाई में और कुछ कहना है?’’

‘‘कुछ नहीं।’’

8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर के जेल में मंगल पांडे को फांसी पर लटका दिया गया। कंपनी सरकार ने मंगल पांडे की हत्या की, लेकिन उसकी यादें सदा के लिए अमर हो गयीं। अब देसी सिपाहियों में मंगल पांडे का नाम रौशन हो गया।

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