लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

336 पाठक हैं

‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


शाहजादी– तो सूखा प्रेम तो तुम्हीं को फले।

(माँ का प्रवेश)

माँ–  तुम तीनों यहाँ बैठ कर क्या कर रही हो? चलो वे खाने आ रहे हैं।

तीनों–  (एकदम) अच्छा! तो चलो…चलो…

(तीनों शीघ्रता से भागती हैं। माँ भी मुड़ती हैं। जालपा दृष्टि उठा कर माँ के गले में पड़े चन्द्रहार की शोभा देखती है, फिर आह भर कर कहती है।)

जालपा– (स्वागत) गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा। जब यह हार बना था तभी मैंने कहा था तो इन्होंने बताया था कि तेरे लिए तेरी ससुराल से आवेगा। लेकिन मेरी तो ससुराल भी ऐसी ही निकली।

(मुख और विवर्ण हो जाता है और यहीं परदा गिरता है।)

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai