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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


दयानाथ सावधान होकर बैठ गये। अभी तक केवल उनकी आँखें जागी थीं, अब चेतना भी जाग्रत हो गयी। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी, उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे पूरा भी कर दिखायेगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से साँठ-गाँठ करना उनकी अन्तरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था। पूछा–इसे क्यों उठा लाये?

रमा ने धृष्ठता से कहा–आप ही का तो हुक्म था।

दयानाथ–झूठ कहते हो।

रमानाथ–तो क्या फिर रख आऊँ?

रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले–अब क्या रख आओगे, कहीं देख ले, तो ग़ज़ब ही हो जाये। वही काम करोगे, जिसमें जगहँसाई हो। खड़े क्या हो, सन्दूक़ची मेरे बड़े सन्दूक में रख आओ और जाकर लेट रहो। कहीं जाग पड़े तो बस !

बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना सन्दूक रखा था। रमा ने सन्दूकची उसके अन्दर रख दी और बड़ी फुर्ती से ऊपर चला गया। छत पर पहुँच कर उसने आहट ली, जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा में मग्न थी।

रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे चिपट गयी। रमा ने पूछा–क्या है, तुम चौंक क्यों पड़ी?

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नेत्रों से ताककर कहा–कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो, कितनी रात है अभी?

रमा ने लेटते हुए कहा–सवेरा हो रहा है, क्या स्वप्न देखती थी?

जालपा–जैसे कोई चोर मेरे गहनों की सन्दूक़ची उठाये लिये जाता हो।

रमा का हृदय इतने जोर से धक्-धक् करने लगा, मानों उस पर हथौड़े पड़ रहे हैं। खू़न सर्द हो गया। परन्तु सन्देह हुआ, कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह जो़र से चिल्ला पड़ा–चोर ! चोर?

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