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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा ने बिस्तर पर से जरा खिसककर कहा–मैं बहुत जल्द चली आऊँगी। तुम गये और मैं आयी।

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा–जी नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहाँ मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे क़दम रक्खा जायगा।

जालपा ने एहसान जताते हुए कहा–आप ने मेरा बँधा-बँधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनन्द से घर पहुँच जाती। शहज़ादी सच कहती थी, मर्द बड़े टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा उतर आवें, पर मैं न मानूँगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मन्सूबे चौपट कर दिये। कल खत लिखना ज़रूर। बिना कुछ पैदा किये अब निर्वाह नहीं है।

रमानाथ–कल नहीं, मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियाँ लिखता हूँ।

जालपा–पान तो खाते जाओ।

रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे।

मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिये। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरुष से क्या नहीं करा सकता।

[९]

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्युनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी; पर बड़े रसिक। शतरंज खेलने बैठे जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गयी थी; दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकान्त जीवन के सिवा विनोद के और क्या अवलम्ब था। चाहते तो हज़ारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बड़ा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाज़ी भी न हुई अख़बार कहाँ तक पढ़ते। रमा इधर दो एक बार आया अवश्य; पर बिसात पर न बैठा। रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिये। उसको पकड़ कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आयी है, उसका मुँह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा ! कई बार जी में आया, उसे बुलवायें, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रहे गये। कहाँ जायँ? सिनेमा ही देख आवें? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था; पर इस वक्त सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में क़दम रक्खा।

रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर पहुँचे और उसका हाथ पकड़कर बोले–आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिल्कुल भूल ही गये। हाँ भाई, अब क्यों आओगे? प्रेमिका की रसीली बातों का आनन्द यहाँ कहाँ? चोरी का कुछ पता चला?

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