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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा ने अपनी लम्बी-लम्बी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे दीन नेत्रों से देखा, मानों जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है–हाँ बहन, सब साध पूरी हो गयी।

इन शब्दों में कितनी अपार मर्मान्तक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकी। तीनों कुतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी समझ में न आया हो।

बासन्ती ने कहा–जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूँ।

शहजादी बोली–चढ़ाव ऐसा ही होना चाहिए, कि देखने वाले फड़क उठें।

बासन्ती–तुम्हारी सास बड़ी चतुर जान पड़ती हैं, कोई चीज नहीं छोड़ी।

जालपा ने मुँह फेरकर कहा–ऐसा ही होगा।

राधा–और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

शहजादी–एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबन्द तो है।

जालपा ने वक्रोक्ति के भाव से कहा–हाँ देह में एक आँख न होने से क्या होता है। और सब अंग होते ही हैं आँखें हुईं तो क्या, न हुईं तो क्या !

बालकों के मुँह से गम्भीर बातें सुनकर हमें हँसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुँह से यह लालसा से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बासन्ती अपनी हँसी को रोक न सकीं। हाँ, शहजादी को हँसी न आयी। यह आभूषण-लालसा उसके लिए हँसने की बात नहीं, रोने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली–सब न जाने कहाँ के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाये, चन्द्रहार न लाये, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते हैं तो पूछतीं हूँ, कि तुमने यह कहाँ की रीति निकाली है–ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।

राधा और बासन्ती दिल में काँप रही थीं कि जालपा कहीं ताड़ न जाये। उनका बस चलता तो शहजादी का मुँह बन्द कर देतीं, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थीं; मगर जालपा को शहजादी का यह व्यंग समवेदना से परिपूर्ण जान पड़ा। सजल नेत्र होकर बोली–क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था सो हो गया !

शहजादी–तुम पूछने को कहती हो, मैं रुलाकर छोड़ूँगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त मन ऐसा खट्टा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दूँ। जब तक कंगन न बन गये, मैं नींद भर सोयी नहीं।

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