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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


नौकर बेचारा था तो नौकर ही। उठकर बेचारा चुपके से चला गया। ये शब्द भाई को बहुत बुरे लगे। मुझसे बोले–न मालूम हिन्दुस्तान की सभ्यता कहाँ चली गई। अब आजकल के आदमियों को ऐसा मालूम होता है इन्सानियत रह ही नहीं गई। कम-से-कम सत्तर बरस का यह बूढ़ा होगा। बेचारे के घर कोई है नहीं। काम करता है पेट की रोटी के लिए। और ये बच्चे समझते हैं कि इनके चचा हमी हैं। तुमको याद होगा, अपना हम लोगों का बचपन–कि अपने से बड़े, चाहे वे बेटे ही लगते थे, तब भी उनको भैया करके सम्बोधन करते थे। उनके साथ यह भी खयाल किया जाता था, कि आखिर उसकी यह उमर है। जरा-जरा से काम के लिए उनसे कहते भी नहीं बनता था। यह खयाल होता था, कि यह अपने से कितना बूढ़ा है। और फिर आजकल इन लोगों का नियम हो गया है उसी तरह नौकर इन लोगों को चाहते भी तो नहीं हैं।

मैं बोली–भैया, वह जमाना ही दूसरा था। अब माँ-बाप का लिहाज़ तो करते ही नहीं, नौकरों का लिहाज़ कौन करता है!

इन सिलसिलों में बात हो रही थी कि उसी में भाई ने कहाः

‘तुमको याद है न, जब एक नलका बुआ ब्राह्मनी थी। उसके लिए हम पैसा चोरी करते थे। जिसके पीछे अम्मा ने एक दफा हम दोनों को पीटा था।’

मैं बोली–व्यर्थ ही पीटा था अम्मा ने। कौन हमने अपने लिए पैसे चुराये थे।

भाई–आखिर नलका बुआ से हम लोगों को क्या स्नेह था। वह बुड्ढी औरत!

अरे भैया–मैं बोली– वह बड़ी अच्छी-अच्छी बातें बताती थी। मैं तो उन दिनों को अब याद करती हूँ, सोचती हूँ, वही दिन अगर फिर आ जाते, बड़ा अच्छा होता।

भाई बोले-अरे पागल है, वे दिन आते हैं कहीं से। गये दिन कहीं लौटकर आते हैं फिर से।

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