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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


ठीक जब की बात कहते हैं तब व्यक्ति व्यष्ठि-सत्ता से समष्टि-सिद्धि की ओर बढ़ चला था। राजा जैसी वस्तु की आवश्यकता हो चली थी। पर राजा जो राजत्व की संस्था पर न खड़ा हो, प्रजा की मान्यता पर खड़ा हो, यह तो पीछे से हुआ कि राजत्व संस्था बनी और शिक्षा और न्याय, विभाग रूप में, शासन से पृथक हुए। नगर बन चले थे और जीनव–यापन नितान्त स्वाभाविक कर्म न रह गया था। उसके लिए उद्यम की आवश्यकता थी।

इस भाँति प्रथम राज्य बना और प्रथम राजा हुए श्री आदिनाथ। उनके दो पुत्र थे, पुत्रियाँ। पुत्र भरत और बाहुबली पुत्रियाँ, ब्राह्मी और सुन्दरी।

अवस्था के चतुर्थ खण्ड में ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर श्री आदिनाथ ने कहा पुत्र, अब तुम यह पद लो। मुझे अब दीक्षा लेनी चाहिए।

भरत ने कहा–महाराज।

आदिनाथ ने कहा–तुमको पहला चक्रवर्ती होना है। इस राज्य से बाहर भी बहुत से प्रान्त हैं, जिनको व्यवस्थित शासन तुम्हें देना है। मैं तो लोगों के माल लेने से उनका मुखिया हो गया था। उनको मुझे राजा कहने में सुख मिला।

मैंने कहा, अच्छा–लेकिन तुमको साम्राज्य बनाना है। अपने लिए नहीं, लोगों में एकता लाने के लिए। तुमको विजय-प्रसार का कर्तव्य भी करना होगा।

भरत ने कहा–महाराज, आप दीक्षा क्यों लें? मैं विजयध्वज फहरा न आऊँ और अपने को समर्थ न समझ लूँ, तब तक आप अपना आशीर्वाद मुझ पर से न उठावें।

आदिनाथ ने कहा–पुत्र, अब समय आता जाता है कि राजा शासक अधिक हो, प्रजा का हमजोली उतना न हो। राजैश्वर्य से युक्त राजा को देखकर प्रजा समझती है कि उसने कुछ पाया है। तब तक उसका चित्त तुष्ट नहीं होता। मैं तो प्रजा के निम्नातिनिम्न जन से अपना हमजोलीपन नहीं तज सकता। किन्तु तुम्हारे लिए यह अनिवार्य नहीं है। तुम राजपुत्र हो। मैं तो साधारण पिता का पुत्र हूँ और जिस पद से शासन की आशा है, उसके सर्वथा अयोग्य बन जाना चाहता हूँ। मुझे लोगों के दुःख में जाना चाहिए और मुझे उस मार्ग में से चलकर अपना कैवल्य पा लेना चाहिए।

भरत ने निरूतर होकर सिर झुका लिया।

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