कहानी संग्रह >> गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह) गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है
महात्मा का शिष्य शेखर स्नान करके आ रहा था। दूर से सुरीला उसे श्वेत संगमरमर की प्रतिमा-सी जान पड़ी। सीढ़ी पर वह ठिठक गया कोई दुखिया है, रो रही है। उसने मीठी वाणी से पूछा–देवी, रोती क्यों हो?
क्या मैं तुम्हारी कुछ सेवा कर सकता हूँ?
सुरीला पुरुषों के संसर्ग में नहीं रही थी, लेकिन प्रकृति से ही वह निर्भीक थी। लज्जा के वातावरण में वह पड़ी ही न थी। उसने बालकों की भाँति आँसू पोंछते हुए पूछा– तुम महात्मा के पुत्र हो?
‘मैं महात्माजी का शिष्य हूँ। वे मुझ पर पुत्र की भाँति ही स्नेह करते हैं।’
‘तो तुम कुछ न कर सकोगे, इसी आश्रम में हो न?’
‘आश्रमवासी होने से क्या हुआ? कुछ कहो भी तो सम्भव है मैं तुम्हारा कुछ उपकार कर सकूँ। हम लोगों का ध्येय ही तो परोपकार है।’
सुरीला ने क्षण भर पहले सोची हुई सारी बातें शेखर को सुना दीं, और बोली–क्या अब तुम मेरे पिता से सिफारिश कर सकोगे? यों तो मेरे पिता मेरी प्रत्येक इच्छा पूरी करते हैं, मगर उनका विचार जम गया है कि इस आश्रम में रहने से मेरा कल्याण होगा।
शेखर ने अत्यन्त मधुर शब्दों में सुरीला के पिता के विचारों का समर्थन किया और अनेक प्रकार से सान्त्वना देते हुए उसने कहा– इसमें क्या हर्ज है? पिता के आज्ञानुसार कुछ दिन यहाँ रह देखो। यदि मन न लगे, तो चली जाना। यहाँ किसी प्रकार का बन्धन थोड़े ही है। तुम्हारी स्वतन्त्रता में भी बाधा नहीं पड़ेगी। अपने इच्छानुसार कविता भी कर सकोगी, फुलवारी में विचरण भी कर सकोगी। यहाँ शिक्षा आदि के अनेक साधन हैं। चलो, तुम्हें यहाँ का पुस्तकालय और चित्रशाला दिखा लाऊँ। यहाँ तुम चित्रकला, चिकित्सा, संगीत-कला आदि का भी अध्ययन कर सकती हो।
सुरीला को यह जानकर बहुत सान्त्वना मिली कि शेखर भी कवि है। यहाँ उसे सहानुभूति भी मिल सकती है। शेखर के शब्दों में जाने कैसी मोहनी थी कि सुरीला आश्रम में रहने को तैयार हो गई।
सुरीला और शेखर में मित्रता हो गई। आश्रम में स्त्री –पुरुषों के परस्पर मिलने-जुलने के लिए कोई खास नियम नहीं था। सबको पूर्ण स्वतंत्रता थी।
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