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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


सुरीला पर वज्रपात हुआ। उसे ऐसा जान पड़ा, मानो हृदय की धड़कन बन्द हुई जाती है। वेदना उसके हृदय को मसलने लगी। वह भयभीत हिरणी की नाई छलकते आँसुओं से शेखर का मुँह निहारती रह गई।

सुरीला की यह दशा देखकर शेखर का मन जाने कैसे होने लगा, किन्तु उन्होंने हृदय को दृढ़ करके कहा– घबराती क्यों हो? शान्ति से चित्त को एकाग्र करके रहो। गुरु के उपदेशों पर मनन करना, तुम्हारा चित्त सावधान हो जायगा।

सुरीला ने कहा–शेखर, तुम चले जाओगे, तो मैं किसी प्रकार भी यहाँ न रह सकूँगी। मुझे पिता के यहाँ पहुँचा दो।

‘नहीं, सुरीला इतने दिनों के अभ्यास को इस प्रकार न तोड़ो। मैं गुरुदेव से प्रार्थना करूँगा कि वे अब तुम्हें अधिक समय दें। गुरु के उपदेशों से तुम्हें शान्ति मिलेगी।’

घबराकर सुरीला ने कहा–नहीं, शेखर, ऐसा न करना, बल्कि गुरु से कहो, मुझे भी एकान्तवास की आज्ञा दें।

‘ऐसा तो नहीं हो सकेगा, सुरीला! गुरुदेव तुम्हें एकान्तवास में जाने की आज्ञा नहीं देंगे। अभी तुम उस कठिन तपस्या में सफल न हो सकोगी।’

‘तो शेखर, मैं यहाँ नहीं रहूँगी। मुझे क्षमा करना, शेखर, गुरु से मुझे एक प्रकार का भय लगता है। उनसे अधिक मुझे तुम पर...,

बीच ही में बात काटकर शेखर ने ताड़ना के शब्दों में कहा–कैसी बातें करती हो सुरीला! गुरुदेव पर भक्ति करो।

कापँते हुए स्वर से सुरीला ने कहा–‘शेखर, मैंने अनेक बार देखा है, गुरु छिपकर हम दोनों की बातें सुनते हैं।

‘तो दोष क्या है? हम लोगों पर दृष्टि रखना गुरु का कर्तव्य है।’

सिसकते हुए सुरीला बोली-इतना ही नहीं, शेखर, रात्रि में मुझे कई बार शुबहा हुआ, किवाड़ की दराज में से कोई मेरे कमरे में झाँकता है। तुमने जो अपना चित्र बनाकर मुझे दिया था, वह मेरे कमरे से कोई चुराकर ले गया। मुझे यह काम गुरु का ही जान पड़ता हैं। मैं यहाँ नहीं रहूँगी, या फिर तुम कुछ दिनों बाद जाना।

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