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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


सुरीला सिसक-सिसक कर रोने लगी। क्षण भर मौन रहने के बाद उसने शेखर से कहा–शेखर मेरा मन तुमसे भय नहीं खाता।

इस सरलता पर शेखर हँस दिया और इस समय इस प्रसंग को भुलाने के लिए उसने कहा आओ, कुछ देर रामायण का पाठ करें।

सुरीला रामायण गाने लगी। शेखर आधा लेटा हुआ सुनने लगा। पुष्प वाटिका का मनोरम प्रसंग चल रहा था। दोनों तुलसीदास के भक्ति–रस का स्वाद ले रहे थे, बिलकुल रामायण में तन्मय थे।

और गुरु? गुरु छत की खिड़की पर आधी रात में दोनों के बीच का भेद लेने बैठे थे। जाग्रत अवस्था में ही गुरु को स्वप्न-सा भान हुआ-यह सुरीला कितनी सुन्दर है, मानो सौन्दर्य स्वयं देवीरूप में प्रकट हुआ है। रागिणी का रूप इसकी छाया के बराबर भी न था।

गुरु चौंक पड़े। आज वर्षों बाद अतीत-काल की स्मृति क्यों हिलोरे लेने लगी? ‘हरि ओउम्’ उच्चारण करके गुरु ने आकाश पर दृष्टि डाली। उन्हें प्रतीत होने लगा कि भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें दिव्यदृष्टि प्रदान की है। सुरीला चन्द्रमा का अंश ही नहीं रामायण की सीता भी है, विष्णु की लक्ष्मी है, कृष्ण की राधिका भी है और कामदेव की सौन्दर्यवती रति भी है। गुरु बेसुध होकर, भक्तिसागर में डूबकर, राधा, लक्ष्मी, सीता के दर्शनामृत का पान करने लगे।

इस समाधिस्थ अवस्था में कितना समय व्यतीत हो गया, गुरु जान ही न सके। कुक्कुट ने मदमाती बाँग से ऊषा के आगमन की सूचना दी, तो शेखर ने कहा–सुरीला, उठो, आज आश्रम की धुलाई करने की हम लोगों की पारी है। मैं पानी लाता हूँ, तुम चलकर पहले गुरुदेव का कमरा झाड़ दो।

गुरु खिड़की पर सर रखे निद्रा में निमग्न थे यह समय तो उनका वायु सेवन के लिए आश्रम से बाहर जाने का है। सुरीला झाडू लिये गुरु के जागने की प्रतीक्षा में द्वार पर खड़ी रही। गुरु मनोरंज स्वप्न देख रहे थे-वृन्दावन विजय वन में चन्द्रदेव पूर्ण कलाओं से शोभायमान है। मनोमुग्धकारी रजत चन्द्रिका विपिन को सौरभ दान कर रही है, और उसी विमल चाँदनी की शय्या पर चन्द्रमा को कांति को लज्जित करने वाले भगवान कृष्ण दाहिने कर में मुरलिका लिये नृत्य कर रहे हैं, और उनके बाएँ पार्श्व में प्रियतमा राधिका शोभा पा रही हैं।

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