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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


‘वह पहली–तरफ से चौथी।’ –बाकर ने इशारा करते हुए कहा। ओकदा* (*एक वृक्ष विशेष।) के एक घने पेड़ की छाया में आठ-दस ऊँट बँधे थे, उन्हीं में वह जवान साँडनी अपनी लम्बी सुडौल और सुन्दर गर्दन बढ़ाये घने पत्तों में मुँह मार रही थी। माल मंडी में, दूर जहाँ तक नजर जाती थी, बड़े-बड़े ऊँचे ऊँटों, सुन्दर साँडिनियों, काली, मोटी, बेडौल भैसों, सुन्दर नागौरी सींगोंवाले बैलों के सिवा कुछ न दिखाई देता था। गधे भी थे, पर न होने के बराबर। अधिकाश तो ऊँट ही थे। बहावल नगर के मरुस्थल में होने वाली माल मंडी में उनका आधिक्य है भी स्वाभाविक, ऊँट रेगिस्तान का जहाज है, इस रेतीले इलाके में आमदरफ्त, खेती-बाड़ी और बारबरदारी का काम उसी से होता है। पुराने समय में जब गायें दस-दस और बैल पन्द्रह-पन्द्रह रुपये में मिल जाते थे, तब भी अच्छा ऊँट पचास से कम में हाथ न आता था। अब भी जब इस इलाके में नहर आ गई है और पानी की इतनी किल्लत नहीं रही, ऊँट का महत्व कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ा ही है। सवारी के ऊँट दो-दो सौ से तीन-तीन सौ तक पाये जाते हैं और बाही तथा बारबरदारी के भी अस्सी से कम में हाथ नहीं आते।

तनिक और आगे बढ़कर बाकर ने कहा–सच कहता हूँ, चौधरी, इस जैसी सुन्दर साँडनी मुझे सारी मंडी में दिखाई नहीं दी।

हर्ष से नन्दू का सीना दुगना हो गया, बोला–आ एक ही के, इह तो सगली फूटरी हैं। हूँ तो इन्हें चारा फलूँसी नीरिया करूँ।* (*यह एक ही क्या, यह तो सबही सुन्दर हैं, मैं इन्हें चारा फलूँसी (गवाह और मोट) देता हूँ।)

धीरे से बाकर ने पूछा–बेचोगे इसे?

नन्दू ने कहा–बेचने लई तो मंडी माँ आऊँ हूँ।

‘तो फिर बताओ कितने को दोगे?’ –बाकर ने पूछा।

नन्दू ने नख से शिख तक बाकर पर एक दृष्टि डाली और हँसते हुए बोला– तन्ने चाहीजै का तेरे धनी बेई मोल लेसी?* (*तुझे चाहिए, या तू अपने मालिक के लिए मोल ले रहा है?)

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