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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


अपने शरीर के साथ ही वंश की समाप्ति कर देना; क्योंकि इस कलंक के साथ वंश-वृद्धि करना मानो कलंक जिन्दा रखना है। बेटा, वंशनाश ही इस पाप का एक छोटा-सा भयानक प्रायश्चित्त है। आशा है, तुम इस प्रायश्चित्त- द्वारा, मेरे कारण अपने वंश पर लगे इस कलंक से उसको मुक्त करने का- जरूरत हुई तो- सुप्रयत्न करोगे।’ यह कहते-कहते मेरे पिता के प्राण-पखेरू उड़ गये। उनकी मृत्यु के बाद से ही मैं व्यग्र था कि इस विषय में क्या करूँ। भाई सतीशचन्द्र से मैंने अपना रहस्य खोलकर कह दिया था और उन्होंने सदा की तरह मेरे दु:ख में भी भाग लेना स्वीकार कर लिया था। अब, जैसा की आपको मालूम है, हम लोग सैकड़ों मील चक्कर और न-मालूम किन-किन मुसीबतों को झेलकर वापिस आ गये और कार्य सिद्ध न हुई। पर, यहाँ आकर-यहाँ सरला को देखकर- मेरी अन्तरात्मा बार-बार यह कह रही है, कि यही मेरी बहन नन्हीं है। अब आप कृपा करके यह बतलाइए कि सरला के विषय में मेरी जो अवधारणा है, उसको आप अमूलक तो नहीं समझते?’

डाक्टर साहब ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया– ‘रामसुन्दर, मैं इसके उत्तर में स्वयं कुछ कहकर तुमको वे पत्र दिये देता हूँ, जो सरला की माता ने मरते समय सरला के साथ ही मुझे सिपुर्द किये थे। मुझे प्रतीत होता है कि तुम अपनी चेष्टाओं में सफल हुआ चाहते हो।’

डाक्टर साहब ने बक्स खोलकर वे दोनों लिफाफे रामसुन्दर के हाथ में दे दिये, जो सरला की माता ने उनको दिये थे। रामसुन्दर ने दोनों लिफाफों को खोलकर पढ़ा। उनको पढ़ते ही उनको निश्चय हो गया कि उसकी चाची का ही यह पत्र है और उसके पिता का ही वह इकरारनामा है। सरला भी प्यारी नन्हीं के सिवा और कोई नहीं। रामसुन्दर डाक्टर बाबू के चरणों पर गिर पड़ा और सतीश, जो इस अभिनय को देखकर आश्चर्य में डूब रहा था, उठकर बाहर चला गया। डाक्टर बाबू ने सरला को बुलाया। वह तुरन्त आकर उपस्थित हो गई। रामसुन्दर भावावेश को न रोक सका और सरला को हृदय से लगाकर अश्रुवर्षन करने लगा। यदि डाक्टर बाबू सरला से यह न कहते, तो वह अपने को बड़ी विपत्ति में समझती–

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