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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


डाक्टर साहब ने भाव-पूर्ण दृष्टि से रामसुन्दर को देखा, जिसका चेहरा हर्ष और विस्मय के मिले हुए भाव से एक विशेष प्रकार का आकार धारण कर रहा था।

डाक्टर साहब ने कहा–‘सरला के विषय में आप क्या और क्यों पूछना चाहते हैं?

रामसुन्दर बड़े विनीत भाव से बोला–‘माताजी! आज मैं अपने घर का एक रहस्य सुनाता हूँ। उसी के विषय में मैं और भाई सतीश, इधर-उधर सैकड़ों मील घूमा किये? मगर सफलता तो क्या, उसके चिह्न तक नहीं मिले। अब मैं उस रहस्य को सुनाता हूँ। मेरे पिता दो भाई थे- रामप्रसाद और शिवप्रसाद। रामप्रसाद जी मेरे पिता थे। शिवप्रसादजी के एक कन्या थी, जिसको घर के लोग स्नेहवश नन्हीं कहा करते थे। वह मुझसे छ: वर्ष छोटी थी। मेरे चाचा- नन्हीं के पिता- का देहान्त मेरे पिता के सामने ही हो गया था। मेरी चाचीजी का स्वभाव बड़ा उग्र था। वे अपनी आन की बड़ी पक्की थीं। एक दिन मेरे पिता ने किसी घरेलू बात पर गुस्सा होकर उनसे घर से निकल जाने की बहुत ही बुरी बात कह दी। उसके लिए उनको सदा पश्चात्ताप रहा और इस बड़े भारी कलंक को साथ लिये ही उन्होंने इहलोक परित्याग किया। मेरी चाची ने उसी रात को घर छोड़ दिया। नन्हीं को भी वे साथ ले गईं। मेरे पिता ने बहुत तलाश की; पर पता न लगा। मरते समय उन्होंने मुझको अन्तिम वसीअत के तौर पर यही कहा कि ‘जिस तरह हो, अपनी चाची और बहिन का पता लगाना। यदि पता लग जाय, तो उनकी सम्पत्ति मय उस दिन तक के सूद के साथ उनको दे देना। इस तरह मेरी आत्मा के कलंक को धोने की चेष्टा करना। मेरा गया-श्राद्ध इसे ही समझना। यदि पता न लगे, तो तू भी विवाह मत करना।

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