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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


सतीश की यह बकवास सुनकर रामसुन्दर को जरा भी क्रोध न आया। उसने बड़े विनीत भाव से कहा–

‘भाई साहब, आप क्या कर रहे हैं? जो कुछ आपने मेरे आचरण के विषय में कहा है, ठीक है। पर यह आचरण किस दृष्टि से देखना चाहिए, इस पर आपने विचार नहीं किया। मैं समझता हूँ कि हमारा सैकड़ों मील इधर-उधर घूमना बेकार हुआ। जिसकी हमको तलाश थी वह हमारे ही घर में मौजूद है। मैं सच कहता हूँ कि कई बार मेरे जी में आया कि अपनी नन्हीं को हृदय से लगा लूँ। आप मामाजी से इसके विषय में पूछिये तो, मेरा हृदय कूद रहा है। कार्य सिद्ध हो गया।’

बड़े ही विस्मय और सलज्जता के साथ सतीश ने पूछा– रामसुन्दर क्या सच कहते हो, यही तुम्हारी बहिन- नन्हीं है?

‘मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी, जब प्यारी नन्हीं हमसे जुदा हुई थी। मुझे अब तक उसका चेहरा खूब याद है। वह हँसता हुआ स्वर्गीय कान्तिपूर्ण चेहरा, आज भी मेरी आँखों के सामने फिर रहा है। सरला से उसका चेहरा बहुत मिलता है। मुझे खूब याद है, उसके गाल पर दो छोटे-छोटे स्याह तिल थे। सरला के चेहरे पर वैसे ही हैं। चलिए, मामाजी से इसके विषय में पूछ-ताछ करें।

दोनों मित्र तत्काल डाक्टर साहब के कमरे में आये। डाक्टर साहब आरामकुर्सी पर लेटे कोई व्यवसाय-सम्बन्धी पुस्तक पढ़ना चाहते थे कि ये दोनों वहाँ पहुँच गये। उन्होंने कहा–‘सतीश, अब आराम करो। बहुत थके हो।’

सतीश ने धीरे से कहा– मामाजी, रामसुन्दर सरला के विषय में आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।

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