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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है

संन्यासी

श्री सुदर्शन

(आप पंजाब के निवासी हैं। आप कई समाचार पत्रों का सम्पादन भी कर चुके हैं। आपका हिन्दी और उर्दू, दोनों ही भाषाओं पर अधिकार है। आपके गल्प बड़े मनोरंजक, शिक्षाप्रद और भावपूर्ण होते हंन आपके गल्पों से कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आप अच्छे नाट्यकार भी हैं आपको दे बार ‘पंजाब टेक्स्ट-बुक कमेटी’ से पुरस्कार मिल चुके हैं। आपकी शैली बड़ी मर्मस्पर्शी तथा लालित्य-पूर्ण है। मनोभावों का चित्रण करने में आप निपुण हैं।)

लखनवाल, जिला गुजरात, का पालू उन मनुष्यों में से था जो गुणों की गुथली कहे जाते हैं। यदि वह गाँव में न होता, तो होलियों में झाँकियों का, दीवाली पर जुएँ का और दशहरे में रामलीला का प्रबन्ध कठिन हो जाता था। उन दिनों उसे खाने-पीने तक की सुधि न रहती और वह तन-मन से इन कार्यों में लीन रहता था। गाँव में कोई गाने वाला आ जाता, तो लोग पालू के पास जाते कि देखो कुछ राग-विद्या जानता भी है, या यों ही हमें गँवार समझकर धोखा देने आ गया है? पालू अभिमान से सिर हिलाता और उत्तर देता–पालू के रहते हुए तो यह असम्भव है, पीछे की भगवान् जाने। केवल इतना ही नहीं, वह बाँसुरी और घड़ा बजाने में भी पूरा उस्ताद था। हीर-राँझे का किस्सा पढ़ने में, तो दूर-दूर तक कोई उसके जोड़ का न था। दोपहर के समय जब वह पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर ऊँचे स्वर से जोगी और सहती के प्रश्नोत्तर पढ़ता, तो सारे गाँव के लोग इकट्ठे हो जाते और उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते। उसके स्वर में जादू था। वह कुछ दिन के लिए भी बाहर चला जाता,तो गाँव में उदासी छा जाती। पर उसके घर के लोग उसके गुणों को नहीं जानते थे। पालू मन-ही-मन इस पर बहुत कुढ़ता था। तीसरे पहर घर जाता, तो माँ ठण्डी रोटियां सामने रख देती। रोटियाँ ठण्डी होती थीं; परन्तु गालियों की भाजी गर्म होती थी। उस पर भावजें मीठे तानों से कड़वी मिर्च छिड़क देती थीं। पालू मिर्चों से कभी-कबी बिलबिला उठता था, परन्तु लोगों की सहानुभूति मिश्री की डली का काम दे जाती थी।

वे तीनों भाई थे–सुचालू, बालू और पालू। सुचालू गवर्नमेंट स्कूल गुजरात में व्यायाम का मास्टर था, इसलिए लोग उसे सुचालामल के नाम से पुकारते थे। बालू दुकान करता था; उसे बालकराम कहते थे। परन्तु पालू की रुचि सर्वथा खेल-कूद में ही थी। पिता समझाता, मां उपदेश करतीं, भाई निष्ठुर दृष्टि से देखते। मगर पालू सुना-अनसुना कर देता और अपने रंग में मस्त रहता।

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