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गल्प समुच्चय (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8446

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गल्प-लेखन-कला की विशद रूप से व्याख्या करना हमारा तात्पर्य नहीं। संक्षिप्त रूप से गल्प एक कविता है


इसी प्रकार पालू की आयु के तैंतीस वर्ष बीत गये; परन्तु कोई लड़की देने को तैयार न हुआ। माँ दुखी होती थी, मगर पालू हँसकर टाल देता और कहता–मैं ब्याह करके क्या करूँगा? मुझे इस बन्धन से दूर ही रहने दो। परन्तु विधाता के लेख को कौन मिटा सकता है। पाँच मील की दूरी पर टाँडा-नामक ग्राम है। वहां के एक चौधरी ने पालू को देखा, तो लट्टू हो गया। रंग-रूप में सुन्दर था, शरीर सुडौल। जात-पाँत पूछकर उसने अपनी बेटी ब्याह दी।

पालू के जीवन में पलटा आ गया। पहले वह दिन के बारह घण्टे बाहर रहता था और घर से ऐसा घबराता था, जैसे चिड़िया पिँजरे से। परंतु अब वही पिंजरा उसके फूलों की वाटिका बन गया, जिससे बाहर पाँव रखते हुए उसका चित्त उदास हो जाता था। स्त्री क्या आई, उसका संसार ही बदल गया। अब उसे न बाँसुरी से प्रेम था, न किस्सों से प्रीति। लोग कहते, यार! कैसे जोरू-दास हो, कभी बाहर ही नहीं निकलते। हमारे सब साज-समाज उजड़ गये। क्या भाभी कभी कमरे से बाहर निकलने की भी आज्ञा नहीं देती?

माँ कहती, बेटा ब्याह सबके होते आये हैं। परंतु तेरे सरीका निर्लज्ज किसी को नहीं देखा कि दिन-रात स्त्री के पास ही बैठा रहे। पिता उसके मुँह पर उसे कुछ कहना उचित नहीं समझता था, मगर सुनाकर कह दिया करता था कि जब मेरा ब्याह हुआ था, तब मैंने दिन के समय तीन वर्ष तक स्त्री के साथ बात तक न की थी। पर अब तो समय का रंग ही पलट गया है। आज ब्याह होता है, कल घुल-मिलकर बातें होने लगती हैं। पालू लाख अनपढ़ था, परन्तु मूर्ख नहीं था कि इन बातों का अर्थ न समझता। पर स्वभाव का बेपरवा था, हँसकर टाल देता। होते-होते नौबत यहाँ तक पहुँची कि भाई-भावजें बात-बात में ताने मारने और घृणा की दृष्टि से देखने लगीं। मनुष्य सब कुछ सब लेता है; पर अपमान नहीं सह सकता। पालू भी बार-बार के अपमान को देखकर चुप न रह सका। एक दिन पिता के सामने जाकर बोला–‘यह क्या रोज-रोज ऐसा ही होता रहेगा?’

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