उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिल्कुल भूलकर, राय साहब का यशोगान आरम्भ किया–ऐसी होम-मेम्बरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिये हुजूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।
राय सहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहने वाला, परले सिरे का बेवफा और निर्लज्ज; मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आयी। पूछा–आजकल आप क्या कर रहे हैं?
कुछ नहीं हुजूर, बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाजिर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुजूर। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो हुजूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निन्दा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा, बस कीजिए महाराज, राय साहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निन्दा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गये। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। साफ कह दिया, आप कितना ही ठाट-बाट दिखायें; पर राय साहब की जो इज्जत है; वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाट से नहीं होती, लियाकत से होती है। आप में जो लियाकत है वह तो दुनिया जानती है।
राय साहब ने अभिनय किया–आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।
तंखा ने अकड़कर कहा–मैं तो हुजूर साफ कहता हूँ, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुजूर के कदमों को पकड़े हुए हूँ, तो किसी से क्यों डरूँ। हुजूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मजदूरी साफ डकार गये। देना तो जानते नहीं हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए। किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन दहाड़े औरतों को...
कार की आवाज आयी और राजा सूर्यप्रतापसिंह उतरे। राय साहब ने कमरे से निकलकर उनका स्वागत किया और इस सम्मान के बोझ से नत होकर बोले–मैं तो आपकी सेवा में आने वाला ही था।
यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रतापसिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य!
मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गयी है? उन्होंने राय साहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था; मगर नहीं, राजा साहब यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गये हों, मगर दिलों में जो जलन है वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझनेवाली नहीं।
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