लोगों की राय

उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास)

गोदान’ (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :758
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8458

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

54 पाठक हैं

‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।


मालती उनकी पत्नी न होकर भी उनके इतने समीप थी कि यह प्रश्न उसने उसी सहज भाव से किया, जैसे अपने किसी आत्मीय से करती।

मेहता ने बिना झेंपे हुए कहा–क्या करूँ मालती, पैसा तो बचता ही नहीं।

मालती को अचरज हुआ–तुम एक हजार से ज्यादा कमाते हो, और तुम्हारे पास अपने कपड़े बनवाने को भी पैसे नहीं? मेरी आमदनी कभी चार सौ से ज्यादा न थी; लेकिन मैं उसी में सारी गृहस्थी चलाती हूँ और कुछ बचा लेती हूँ। आखिर तुम क्या करते हो?

‘मैं एक पैसा भी फालतू नहीं खर्च करता। मुझे कोई ऐसा शौक भी नहीं है।’

‘अच्छा, मुझसे रुपए ले जाओ और एक जोड़ी अचकन बनवा लो।

मेहता ने लज्जित होकर कहा–अबकी बनवा लूँगा। सच कहता हूँ।

‘अब आप यहाँ आयें तो आदमी बनकर आयें।’

‘यह तो बड़ी कड़ी शर्त है।’

‘कड़ी सही। तुम जैसों के साथ बिना कड़ाई किये काम नहीं चलता।’

मगर वहाँ तो सन्दूक खाली था और किसी दूकान पर बे पैसे जाने का साहस न पड़ता था! मालती के घर जायँ तो कौन मुँह लेकर? दिल में तड़प-तड़प कर रह जाते थे। एक दिन नयी विपत्ति आ पड़ी। इधर कई महीने से मकान का किराया नहीं दिया था। पचहत्तर रुपए माहवार बढ़ते जाते थे। मकानदार ने जब बहुत तकाजे करने पर भी रुपए वसूल न कर पाये, तो नोटिस दे दी; मगर नोटिस रुपये गढ़ने का कोई जन्तर तो है नहीं। नोटिस की तारीख निकल गयी और रुपए न पहुँचे। तब मकानदार ने मजबूर होकर नालिश कर दी। वह जानता था, मेहताजी बड़े, सज्जन और परोपकारी पुरुष हैं; लेकिन इससे ज्यादा भलमनसी वह क्या करता कि छः महीने बैठा रहा। मेहता ने किसी तरह की पैरवी न की, एकतरफा डिग्री हो गयी, मकानदार ने तुरत डिग्री जारी करायी और कुर्क-अमीन मेहता साहब के पास पूर्व सूचना देने आया; क्योंकि उसका लड़का यूनिवर्सिटी में पढ़ता था और उसे मेहता कुछ वजीफा भी देते थे। संयोग से उस वक्त मालती भी बैठी थी। बोली–कैसी कुर्की है?  किस बात की?

अमीन ने कहा–वही किराये कि डिग्री जो हुई थी। मैंने कहा, हुजूर को इत्तला दे दूँ। चार-पाँच सौ का मामला है, कौन-सी बड़ी रकम है। दस दिन में भी रुपए दे दीजिए, तो कोई हरज नहीं। मैं महाजन को दस दिन तक उलझाए रहूँगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book