उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
मिर्ज़ा ने पूछा–शादी कब तक होगी?
मेहता ने अचम्भे में आकर पूछा–किसकी?
‘आपकी।’
‘मेरी शादी! किसके साथ हो रही है?
‘वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपाने की बात है।’
‘नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल खबर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है?’
‘और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आप की कम्पेनियन बनकर रहेंगी?’
मेहता गम्भीर भाव से बोले–आपका खयाल बिलकुल ग़लत है। मिर्ज़ाजी! मिस मालती हसीन हैं, खुशमिजाज हैं, समझदार हैं, रोशन खयाल हैं और भी उनमें कितनी खूबियाँ हैं। लेकिन मैं अपनी जीवन-संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँ, वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेज़बानी से, अपनी कुबार्नी से, अपने को बिलकुल मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है, पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामर्थ्य ही नहीं है। वह अपने को मिटायेगा, तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेजप्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझकर कि वह ज्ञान का पुतला है सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान् है, शान्ति-सम्पन्न है, सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं, तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की ओर, जो सर्वांश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नजरों में क्या है? संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ; मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आये, अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ, तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पाकर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उसपर अपने को अर्पण कर दूँगा।
मिर्ज़ा ने सिर हिलाकर कहा–ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले। मेहता ने हाथ मारकर कहा–एक नहीं हजारों; वरना दुनिया वीरान हो जाती।
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