उपन्यास >> गोदान’ (उपन्यास) गोदान’ (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘गोदान’ प्रेमचन्द का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें ग्रामीण समाज के अतिरिक्त नगरों के समाज और उनकी समस्याओं का उन्होंने बहुत मार्मिक चित्रण किया है।
एकाएक उसका मन उड़कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीं, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डालकर वह रो लेती; लेकिन नहीं, वह रोयेगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दुखी न बनायेगी, मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा से ज्यादा कर सकती थी, वह कर गयी? मेरे कर्मों की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोये? वह अब किसी के अधीन नहीं है, वह अपने गुजर-भर को कमा सकती है। वह कल ही गाँधी-आश्रम से चीजें लेकर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखाकर कहेंगे–वह जा रही है खन्ना की बीबी; लेकिन इस शहर में रहूँ क्यों? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमायेगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिजाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब खुद अपना पालन करूँगी। सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक्त वह सम्पूर्ण एकान्त चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी; मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गये। उस पर बच्चा भी रोने लगा था।
मेहता ने समीप आकर विस्मय के साथ पूछा–आप इस वक्त यहाँ कैसे आ गयीं?
गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुए कहा–उसी तरह जैसे आप आ गये।
मेहता ने मुस्कराकर कहा–मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप कर दूँ।
‘आपने यह कला कब सीखी?’
‘अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी।’
‘अच्छा! परीक्षा के दिन करीब आ गये?’
‘यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगा, बैठ जाऊँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है।’
‘अच्छी बात है, मैं भी देखूँगी आप किस ग्रेड में पास होते हैं।’
यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला, तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मारकर बोले–देखा आपने, कैसा मन्तर के जोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से बच्चा लाऊँगा।’
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