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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मुख्तार—हाँ महाराज, अभी एक असामी और है, तख़त सिंह।

हीरामणि—वह क्यों नहीं आया?

मुख्तार—ज़रा मस्त है।

हीरामणि—मैं उसकी मस्ती उतार दूँगा। ज़रा कोई उसे बुला लाये।

थोड़ी देर में एक बूढ़ा आदमी लाठी टेकता हुआ आया और दण्डवत् करके ज़मीन पर बैठ गया, न नज़र न नियाज़। उसकी यह गुस्ताखी देखकर हीरामणि को बुखार चढ़ आया। कड़ककर बोले—अभी किसी जमींदार से पाला नहीं पड़ा है। एक-एक की हेकड़ी भुला दूँगा!

तख़त सिंह ने हीरामणि की तरफ़ गौर से देखकर जवाब दिया—मेरे सामने बीस ज़मींदार आये और चले गये। मगर कभी किसी ने इस तरह घुड़की नहीं दी।

यह कहकर उसने लाठी उठाई और अपने घर चला आया।

बूढ़ी ठकुराइन ने पूछा—देखा ज़मींदार को कैसे आदमी हैं?

तख़त सिंह—अच्छे आदमी हैं। मैं उन्हें पहचान गया।

ठकुराइन—क्या तुमसे पहले की मुलाकात है।

तख़त सिंह—मेरी उनकी बीस बरस की जान-पहिचान है, गुड़ियों के मेलेवाली बात याद है न?

उस दिन से तख़त सिंह फिर हीरामणि के पास न आया।

छः महीने के बाद रेवती को भी श्रीपुर देखने का शौक़ हुआ। वह और उसकी बहू और बच्चे सब श्रीपुर आये। गाँव की सब औरतें उससे मिलने आयीं। उनमें बूढ़ी ठकुराइन भी थी। उसकी बातचीत, सलीका और तमीज़ देखकर रेवती दंग रह गयी। जब वह चलने लगी तो रेवती ने कहा—ठकुराइन, कभी-कभी आया करना, तुमसे मिलकर तबियत बहुत खुश हुई।

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