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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


इस तरह दोनों औरतों में धीरे-धीरे मेल हो गया। यहाँ तो यह कैफि़यत थी और हीरामणि अपने मुख्तारेआम के बहकावे में आकर तख़त सिंह को बेदखल करने की तरकीबें सोच रहा था।

जेठ की पूरनमासी आयी। हीरामणि की सालगिरह की तैयारियाँ होने लगीं। रेवती चलनी में मैदा छान रही थी कि बूढ़ी ठकुराइन आयी। रेवती ने मुस्कराकर कहा—ठकुराइन, हमारे यहाँ कल तुम्हारा न्योता है।

ठकुराइन—तुम्हारा न्योता सिर-आँखों पर। कौन-सी बरसगाँठ है? रेवती उनतीसवीं।

ठकुराइन—नरायन करे अभी ऐसे-ऐसे सौ दिन तुम्हें और देखने नसीब हो।

रेवती—ठकुराइन, तुम्हारी ज़बान मुबारक हो। बड़े-बड़े जन्तर-मन्तर किये हैं तब तुम लोगों की दुआ से यह दिन देखना नसीब हुआ है। यह तो सातवें ही साल में थे कि इसकी जान के लाले पड़ गये। गुड़ियों का मेला देखने गयी थी। यह पानी में गिर पड़े। बारे, एक महात्मा ने इसकी जान बचायी। इनकी जान उन्हीं की दी हुई है। बहुत तलाश करवाया। उनका पता न चला। हर बरसगाँठ पर उनके नाम से सौ रुपये निकाल रखती हूँ। दो हज़ार से कुछ ऊपर हो गये हैं। बच्चे की नीयत है कि उनके नाम से श्रीपुर में एक मंदिर बनवा दें। सच मानो ठकुराइन, एक बार उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सुफल हो जाता, जी की हवस निकाल लेते।

रेवती जब खामोश हुई तो ठकुराइन की आँखों से आँसू जारी थे।

दूसरे दिन एक तरफ़ हीरामणि की सालगिरह का उत्सव था और दूसरी तरफ़ तख़त सिंह के खेत नीलाम हो रहे थे।

ठकुराइन बोली—मैं रेवती रानी के पास जाकर दुहाई मचाती हूँ।

तख़त सिंह ने जवाब दिया—मेरे जीते-जी नहीं।

असाढ़ का महीना आया। मेघराज ने अपनी प्राणदायी उदारता दिखायी। श्रीपुर के किसान अपने-अपने खेत जोतने चले। तख़तसिंह की लालसा भरी आँखें उनके साथ-साथ जातीं, यहाँ तक कि ज़मीन उन्हें अपने दामन में छिपा लेती।

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