कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
ठाकुर साहब के गुस्से की आग भड़क उठी और चेहरा लाल हो गया, और ज़ोर से बोले—तुम लोग ज़बान सम्हालकर बातें करो वर्ना जिस तरह गले में झोलियाँ लटकाये आये थे उसी तरह निकाल दिये जाओगे। मैं प्रद्युम्न सिंह हूँ, जिसने तुम जैसे कितने ही हेकड़ों को इसी जगह कुचलवा डाला है। यह कहकर उन्होंने अपने रिसाले के सरदार अर्जुनसिंह को बुलाकर कहा—ठाकुर, अब इन चीटियों के पर निकल आये हैं, कल शाम तक इन लोगों से मेरा गाँव साफ़ हो जाए।
हरदास खड़ा हो गया। गुस्सा अब चिनगारी बनकर आँखों से निकल रहा था। बोला—हमने इस गाँव को छोड़ने के लिए नहीं बसाया है। जब तक जियेंगे इसी गाँव में रहेंगे, यहीं पैदा होंगे और यहीं मरेंगे। आप बड़े आदमी हैं और बड़ों की समझ भी बड़ी होती है। हम लोग अक्खड़ गँवार हैं। नाहक गरीबों की जान के पीछ न पड़िए। ख़ून-ख़राबा हो जायेगा। लेकिन आपको यही मंजूर है तो हमारी तरफ़ से आपके सिपाहियों को चुनौती है, जब चाहें दिल के अरमान निकाल लें।
इतना कहकर ठाकुर साहब को सलाम किया और चल दिया। उसके साथी भी गर्व के साथ अकड़ते हुए चले। अर्जुनसिंह ने उनके तेवर देखे। समझ गया कि यह लोहे के चने हैं लेकिन शोहदों का सरदार था, कुछ अपने नाम की लाज थी। दूसरे दिन शाम के वक़्त जब रात और दिन में मुठभेड़ हो रही थी, इन दोनों जमातों का सामना हुआ। फिर वह धौल-धप्पा हुआ कि ज़मीन थर्रा गयी। जबानों ने मुंह के अन्दर वह मार्के दिखाये कि सूरज डर के मारे पच्छिम में जा छिपा। तब लाठियों ने सिर उठाया लेकिन इससे पहले कि वह डाक्टर साहब की दुआ और शुक्रिये की मुस्तहक़ हों अर्जुनसिंह ने समझदारी से काम लिया। ताहम उनके चन्द आदमियों के लिए गुड़ और हल्दी पीने का सामान हो चुका था।
वकील साहब ने अपनी फ़ौज की यह बुरी हालतें देखी, किसी के कपड़े फटे हुए, किसी के जिस्म पर गर्द जमी हुई, कोई हाँफते-हाँफते बेदम (ख़ून बहुत कम नज़र आया क्योंकि यह एक अनमोल चीज है और इसे डंडों की मार से बचा लिया गया) तो उन्होंने अर्जुनसिंह की पीठ ठोकी और उसकी बहादुरी और जाँबाजी की ख़ूब तारीफ़ की। रात को उनके सामने लड्डू और इमरतियों की ऐसी वर्षा हुई कि यह सब गर्द-गुबार धुल गया। सुबह को इस रिसाले ने ठंडे-ठंडे घर की राह ली और क़सम खा गए कि अब भूलकर भी इस गाँव का रुख न करेंगे।
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