कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
भादों का महीना था। कपास के फूलों की सुर्ख और सफेद चिकनाई, तिल की ऊदी बहार और सन का शोख़ पीलापन अपने रूप का जलवा दिखाता था। किसानों की मड़ैया और छप्परों पर भी फल-फूल की रंगीनी दिखायी देती थी। उस पर पानी की हलकी-हलकी फुहारें प्रकृति के सौंदर्य के लिए सिंगार करनेवाली का काम दे रही थीं। जिस तरह साधुओं के दिल सत्य की ज्योति से भरे होते हैं, उसी तरह सागर और तालाब साफ़-शफ़्फ़ाफ़ पानी से भरे थे। शायद राजा इन्द कैलाश की तरावट भरी ऊँचाइयों से उतरकर अब मैदानों में आनेवाले थे। इसीलिए प्रकृति ने सौन्दर्य और सिद्धियों और आशाओं के भी भण्डार खोल दिये थे। वकील साहब को भी सैर की तमन्ना ने गुदगुदाया। हमेशा की तरह अपने रईसाना ठाट-बाट के साथ गाँव में आ पहुँचे। देखा तो संतोष और निश्चिन्तता के वरदान चारों तरफ़ स्पष्ट थे।
गाँववालों ने उनके शुभागमन का समाचार सुना, सलाम को हाज़िर हुए। वकील साहब ने उन्हें अच्छे-अच्छे कपड़े पहने, स्वाभिमान के साथ क़दम मिलाते हुए देखा। उनसे बहुत मुस्कराकर मिले। फसल का हाल-चाल पूछा। बूढ़े हरदास ने एक ऐसे लहजे में जिससे पूरी ज़िम्मेदारी और चौधरापे की शान टपकती थी, जवाब दिया—हुजू़र के क़दमों की बरकत से सब चैन है। किसी तरह की तकलीफ़ नहीं आपकी दी हुई नेमत खाते हैं और आपका जस गाते हैं। हमारे राजा और सरकार जो कुछ हैं, आप हैं और आपके लिए जान तक हाज़िर है।
ठाकुर साहब ने तेवर बदलकर कहा—मैं अपनी खुशामद सुनने का आदी नहीं हूँ।
बूढ़े हरदास के माथे पर बल पड़े, अभिमान को चोट लगी। बोला—मुझे भी खुशामद करने की आदत नहीं है।
ठाकुर साहब ने ऐंठकर जवाब दिया—तुम्हें रईसों से बात करने की तमीज नहीं। ताक़त की तरह तुम्हारी अक्ल भी बुढ़ापे की भेंट चढ़ गई।
हरदास ने अपने साथियों की तरफ़ देखा। गुस्से की गर्मी से सब की आँख फैली हुईं और धीरज की सर्दी से माथे सिकुड़े हुए थे। बोला—हम आपकी रैयत हैं लेकिन हमको अपनी आबरू प्यारी है और चाहे आप जमींदार को अपना सिर दे दें आबरू नहीं दे सकते।
हरदास के कई मनचले साथियों ने बुलन्द आवाज में ताईद की—आबरू जान के पीछे है।
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