कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
सेठ जी ने रोहिणी को बाज़ार की ख़ूब सैर करायी और कुछ उसकी पसन्द से, कुछ अपनी पसन्द से बहुत-सी चीज़ें खरीदीं, यहाँ तक कि रोहिणी बातें करते-करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गई। उसने इतनी चीज़ें देखीं और इतनी बातें सुनीं कि उसका जी भर गया। शाम होते-होते रोहिणी के घर पहुँचे और मोटरकार से उतरकर रोहिणी को अब कुछ आराम मिला। दरवाज़ा बन्द था। उसकी माँ किसी ग्राहक के घर कपड़े देने गयी थी। रोहिणी ने अपने तोहफों को उलटना-पलटना शुरू किया—ख़ूबसूरत रबड़ के खिलौने, चीनी की गुड़िया जरा दबाने से चूँ-चूँ करने लगती और रोहिणी यह प्यारा संगीत सुनकर फूली न समाती थी। रेशमी कपड़े और रंग-बिरंगी साड़ियों के कई बण्डल थे लेकिन मखमली बूटे की गुलकारियों ने उसे ख़ूब लुभाया था। उसे उन चीज़ों के पाने की जितनी खुशी थी, उससे ज़्यादा उन्हें अपनी सहेलियों को दिखाने की बेचैनी थी। सुन्दरी के जूते अच्छे सही लेकिन उनमें ऐसे फूल कहाँ हैं। ऐसी गुड़िया उसने कभी देखी भी न होंगी। इन ख़यालों से उसके दिल में उमंग भर आयी और वह अपनी मोहिनी आवाज़ में एक गीत गाने लगी। सेठ जी दरवाज़े पर खड़े इन पवित्र दृश्य का हार्दिक आनन्द उठा रहे थे। इतने में रोहिणी की माँ रुक्मिणी कपड़ों की एक पोटली लिये हुए आती दिखायी दी। रोहिणी ने खुशी से पागल होकर एक छलाँग भरी और उसके पैरों से लिपट गयी। रुक्मिणी का चेहरा पीला था, आँखों में हसरत और बेकसी छिपी हुई थी, गुप्त चिंता का सजीव चित्र मालूम होती थी, जिसके लिए ज़िन्दगी में कोई सहारा नहीं।
मगर रोहिणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चूमा तो ज़रा देर के लिए उसकी आँखों में उम्मीद और ज़िन्दगी की झलक दिखायी दी। मुरझाया हुआ फूल खिल गया। बोली—आज तू इतनी देर तक कहाँ रही, मैं तुझे ढूँढ़ने पाठशाला गयी थी।
रोहिणी ने हुमककर कहा—मैं मोटरकार पर बैठकर बाज़ार गयी थी। वहाँ से बहुत अच्छी-अच्छी चीज़ें लायी हूँ। वह देखो कौन खड़ा है?
माँ ने सेठ जी की तरफ़ ताका और लजाकर सिर झुका लिया।
बरामदे में पहुँचते ही रोहिणी माँ की गोद से उतरकर सेठजी के पास गयी और अपनी माँ को यक़ीन दिलाने के लिए भोलेपन से बोली—क्यों, तुम मेरे बाप हो न?
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