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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


सेठ जी ने उसे प्यार करके कहा—हाँ, तुम मेरी प्यारी बेटी हो।

रोहिणी ने उनके मुंह की तरफ़ याचना-भरी आँखों से देखकर कहा—अब तुम रोज यहीं रहा करोगे?

सेठ जी ने उसके बाल सुलझाकर जवाब दिया—मैं यहाँ रहूँगा तो काम कौन करेगा? मैं कभी-कभी तुम्हें देखने आया करूँगा, लेकिन वहाँ से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीज़ें भेजूँगा।

रोहिणी कुछ उदास-सी हो गयी। इतने में उसकी माँ ने मकान का दरवाज़ा खोला ओर बड़ी फुर्ती से मैले बिछावन और फटे हुए कपड़े समेट कर कोने में डाल दिये कि कहीं सेठ जी की निगाह उन पर न पड़ जाए। यह स्वाभिमान स्त्रियों की ख़ास अपनी चीज़ है।

रुक्मिणी अब इस सोच में पड़ी थी कि मैं इनकी क्या ख़ातिर-तवाजो करूँ। उसने सेठ जी का नाम सुना था, उसका पति हमेशा उनकी बड़ाई किया करता था। वह उनकी दया और उदारता की चर्चाएँ अनेकों बार सुन चुकी थी। वह उन्हें अपने मन का देवता समझा करती थी, उसे क्या उम्मीद थी कि कभी उसका घर भी उनके क़दमों से रोशन होगा। लेकिन आज जब वह शुभ दिन संयोग से आया तो वह इस क़ाबिल भी नहीं कि उन्हें बैठने के लिए एक मोढ़ा दे सके। घर में पान और इलायची भी नहीं। वह अपने आँसुओं को किसी तरह न रोक सकी।

आख़िर जब अँधेरा हो गया और पास के ठाकुरद्वारे से घण्टों और नगाड़ों की आवाजें आने लगीं तो उन्होंने ज़रा ऊँची आवाज़ में कहा—बाईजी, अब मैं जाता हूँ। मुझे अभी यहाँ बहुत काम करना है। मेरी रोहिणी को कोई तकलीफ़ न हो। मुझे जब मौका मिलेगा, उसे देखने आऊँगा। उसके पालने-पोसने का काम मेरा है और मैं उसे बहुत खुशी से पूरा करूँगा। उसके लिए अब तुम कोई फ़िक्र मत करो। मैंने उसका वजीफ़ा बाँध दिया है और यह उसकी पहली क़िस्त है।

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