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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मगर कमज़ोर इरादा हमेशा सवाल और दलील की आड़ लिया करता है। हैदर के दिल में ख़याल पैदा हुआ, क्या इस मुहब्बत के बाग़ को उजाड़ने का इल्ज़ाम मेरे ऊपर नहीं है? जिस वक़्त बदगुमानियों के अँखुए निकले, अगर मैंने तानों और धिक्कारों के बजाय मुहब्बत से काम लिया होता तो आज यह दिन न आता। मेरे जुल्मों ने मुहब्बत और वफ़ा की जड़ काटी। औरत कमज़ोर होती है, किसी सहारे के बग़ैर नहीं रह सकती। जिस औरत ने मुहब्बत के मज़े उठाये हों, और उल्फ़त की नाज़बरदारियां देखी हों वह तानों और ज़िल्लतों की आँच क्या सह सकती है? लेकिन फिर ग़ैरत ने उकसाया, कि जैसे वह धुँधला चिराग़ भी उसकी कमज़ोरियों पर हँसने लगा।

स्वाभिमान और तर्क में सवाल-जवाब हो रहा था कि अचानक नईमा ने करवट बदली ओर अँगड़ाई ली। हैदर ने फौरन तलवार उठायी, जान के ख़तरे में आगा-पीछा कहाँ? दिल ने फ़ैसलाकर लिया, तलवार अपना काम करनेवाली ही थी कि नईमा ने आँखें खोल दीं। मौत की कटार सिर पर नज़र आयी। वह घबराकर उठ बैठी। हैदर को देखा, परिस्थिति समझ में आ गयी। बोली—हैदर!

हैदर ने अपनी झेंप को गुस्से के पर्दे में छिपाकर कहा—हाँ, मैं हूँ हैदर!

नईमा सिर झुकाकर हसरत-भरे ढंग से बोली—तुम्हारे हाथों में यह चमकती हुई तलवार देखकर मेरा कलेजा थरथरा रहा है। तुम्हीं ने मुझे नाज़बरदारियों का आदी बना दिया है। ज़रा देर के लिए इस कटार को मेरी आँखों से छिपा लो। मैं जानती हूँ कि तुम मेरे ख़ून के प्यासे हो, लेकिन मुझे न मालूम था कि तुम इतने बेरहम और संगदिल हो। मैंने तुमसे दग़ा की है, तुम्हारी खतावार हूँ लेकिन हैदर, यक़ीन मानो, अगर मुझे चन्द आख़िरी बातें कहने का मौक़ा न मिलता तो शायद मेरी रूह को दोजख में भी यही आरजू रहती। मौत की सजा से पहले आपने घरवालों से आख़िरी मुलाक़ात की इजाज़त होती है। क्या तुम मेरे लिए इतनी रियायत के भी रवादार न थे? माना कि अब तुम मेरे लिए कोई नहीं हो मगर किसी वक़्त थे और तुम चाहे अपने दिल में समझते हो कि मैं सब कुछ भूल गयी लेकिन मैं मुहब्बत को इतनी जल्दी भूल जाने वाली नहीं हूँ। अपने ही दिल से फ़ैसला करो। तुम मेरी बेवफ़ाइयाँ चाहे भूल जाओ लेकिन मेरी मुहब्बत की दिल तोड़नेवाली यादगारें नहीं मिटा सकते। मेरी आख़िरी बातें सुन लो और इस नापाक ज़िन्दगी का किस्सा पाक करो। मैं साफ़-साफ़ कहती हूँ इस आख़िरी वक़्त में क्यों डरूँ। मेरी जो कुछ दुर्गत हुई है उसके ज़िम्मेदार तुम हो। नाराज़ न होना। अगर तुम्हारा ख्य़ाल है कि मैं यहाँ फूलों की सेज पर सोती हूँ तो वह ग़लत है। मैंने औरत की शर्म खोकर उसकी क़द्र जानी है। मैं हसीन हूँ, नाजुक हूँ; दुनिया की नेमतें मेरे लिए हाजि़र हैं, नासिर मेरी इच्छा का गुलाम है लेकिन मेरे दिल से यह ख़याल कभी दूर नहीं होता कि वह सिर्फ़ मेरे हुस्न और अदा का बन्दा है। मेरी इज्ज़त उसके दिल में कभी हो भी नहीं सकती। क्या तुम जानते हो कि यहाँ खवासों और दूसरी बीवियों के मतलब-भरे इशारे मेरे ख़ून और जिगर को नहीं लजाते? ओफ्, मैंने अस्मत खोकर अस्मत की क़द्र जानी है लेकिन मैं कह चुकी हूँ और फिर कहती हूँ, कि इसके तुम ज़िम्मेदार हो।

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