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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


नईमा के चेहरे पर एक सुहानी, प्राणदायिनी मुस्कराहट दिखायी दी और मतवाली आँखों में खुशी की लाली झलकने लगी। बोली—आज कैसा मुबारक दिन है कि दिल की सब आरजुएँ पूरी होती हैं लेकिन यह कम्बख्त आरजुएँ कभी पूरी नहीं होतीं। इस सीने से लिपटकर मुहब्बत की शराब के बगैर नहीं रहा जाता। तुमने मुझे कितनी बार प्रेम के प्याले पिलाए हैं। उस सुराही और उस प्याले की याद नहीं भूलती। आज एक बार फिर उल्फ़त की शराब के दौर चलने दो, मौत की शराब से पहले उल्फ़त की शराब पिला दो। एक बार फिर मेरे हाथों से प्याला ले लो। मेरी तरफ़ उन्हीं प्यार की निगाहों से देखकर, जो कभी आँखों से न उतरती थीं, पी जाओ। मरती हूँ तो खुशी से मरूँ।

नईमा ने अगर सतीत्व खोकर सतीत्व का मूल्य जाना था, तो हैदर ने भी प्रेम खोकर प्रेम का मूल्य जाना था। उस पर इस समय एक मदहोशी छायी हुई थी। लज्जा और याचना और झुका हुआ सिर, यह गुस्से और प्रतिशोध के जानी दुश्मन हैं और एक औरत के नाजुक हाथों में तो उनकी काट तेज़ तलवार को मात कर देती है। अँगूरी शराब के दौर चले और हैदर ने मस्त होकर प्याले पर प्याले खाली करने शुरू किये। उसके जी में बार-बार आता था कि नईमा के पैरों पर सिर रख दूँ और उस उजड़े हुए आशियाने को आबाद कर दूँ। फिर मस्ती की कैफ़ियत पैदा हुई और अपनी बातों पर और अपने कामों पर उसे अख्तियार न रहा। वह रोया, गिड़गिड़ाया, मिन्नतें कीं, यहाँ तक कि उन दग़ा के प्यालों ने उसका सिर झुका दिया।

हैदर कई घण्टे तक बेसुध पड़ा रहा। वह चौंका तो रात बहुत कम बाक़ी रह गयी थी। उसने उठना चाहा लेकिन उसके हाथ-पैर रेशम की डोरियों से मजबूत बँधे हुए थे। उसने भौंचक होकर इधर-उधर देखा। नईमा उसके सामने वही तेज कटार लिये खड़ी थी। उसके चेहरे पर एक क़ातिलों जैसी मुसकराहट की लाली थी। फ़र्जी माशूक के खूनीपन और खंजरबाज़ी के तराने वह बहुत बार गा चुका था मगर इस वक़्त उसे इस नज्ज़ारे से शायराना लुत्फ़ उठाने का जीवट न था। जान का ख़तरा, नशे के लिए तुर्शी से ज़्यादा क़ातिल है। घबराकर बोला—नईमा!

नईमा ने तेज़ लहजे में कहा—हाँ, मैं हूँ नईमा।

हैदर गुस्से से बोला—क्या फिर दग़ा का वार किया?

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