कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
यह कैदखाना इतना लम्बा-चौड़ा था कि कैदी कितना ही भागने की कोशिश करे, उसकी चहारदीवारी से बाहर नहीं निकल सकता था। वहाँ सन्तरी और पहरेदार न थे लेकिन वहाँ की हवा में एक खिंचाव था। मलका के पैरों में न बेड़ियाँ थीं न हाथों में हथकड़ियाँ लेकिन शरीर का अंग-प्रत्यंग तारों से बँधा हुआ था। वह अपनी इच्छा से हिल भी न सकती थी। वह अब दिन के दिन बैठी हुई ज़मीन पर मिट्टी के घरौंदे बनाया करती और समझती यह महल है। तरह-तरह के स्वांग भरती और समझती दुनिया मुझे देखकर लट्टू हो जाती है। पत्थर टुकड़ों से अपना शरीर गूंध लेती ओर समझती कि अब हूरें भी मेरे सामने मात हैं। वह दरख्तों से पूछती, मैं कितनी ख़ूबसूरत हूँ। शाखों पर बैठी चिड़ियों से पूछती, हीरे-जवाहरात का ऐसा गुलबन्द तुमने देखा है? मिट्टी की ठीकरों का अम्बार लगाती और आसमान से पूछती, इतनी दौलत तुमने देखी है?
मालूम नहीं, इस हालत में कितने दिन गुज़र गये। मिर्जा शमीम, लोचनदास वगैरह हरदम उसे घेरे रहते थे। शायद वह उससे डरते थे। ऐसा न हो, यह शाह मसरूर को कोई संदेशा भेज दे। क़ैद में भी उस पर भरोसा न था। यहाँ तक कि मलका की तबियत इस क़ैद से बेजार हो गयी, वह निकल भागने की तदबीरें सोचने लगी।
इसी हालत में एक दिन मलका बैठी सोच रही थी, मैं क्या थी क्या हो गई? जो मेरे इशारों के गुलाम थे वह अब मेरे मालिक हैं, मुझे जिस कल चाहते हैं बिठाते हैं, जहाँ चाहते हैं घुमाते हैं। अफ़सोस, मैंने शाह मसरूर का कहना न माना, यह उसी की सज़ा है। काश, एक बार मुझे किसी तरह इस क़ैद से छुटकारा मिल जाता तो मैं चलकर उनके पैरों पर सिर रख देती और कहती, लौंडी की खता माफ़ कीजिए। मैं ख़ून के आँसू रोती और उन्हें मना लाती और फिर कभी उनके हुक्म से इनकार न करती। मैंने इस नमकहराम बुलहवस खाँ की बातों में पड़कर उन्हें निर्वासित कर दिया, मेरी अक्ल कहाँ चली गयी थी।
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